________________ योगबिंदु दान कैसा दें : दत्तं यदुपकाराय, द्वयोरप्युपजायते / नातुरापथ्यतुल्यं तु, तदेतद् विधिवन्मतम् // 124 // अर्थ : दिया गया दान, रोगी को अपथ्य जैसा नहीं होना चाहिये, (वह दान) दाता और ग्राहक दोनों के उपकार के लिये हो, इस प्रकार विधिपूर्वक दिया हुआ दान बुद्धिमानों को इष्ट है // 124 // विवेचन : अन्न-वस्त्र आदि जो भी दूसरों को दिया जाय, वह दान बीमार को अपथ्य भोजन जैसा न हो, अर्थात् दान देने में भी विवेक होना चाहिये कि किस को क्या देना चाहिये / ज्वर, क्षय, श्वास, खांसी आदि से पीड़ित रोगी को, अपथ्य घी, मिष्टान्न आदि अपाच्य पदार्थ देने से उसका रोग बढ़ता है और रोगों से पीड़ित होकर मनुष्य मृत्यु-शरण हो जाता हैं / ऐसा दान ग्राहक की मृत्यु और दाता को पाप का कारण होता है / इसलिये दाता को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये कि वह जो भी दे वह रोगी को अपथ्य जैसा सिद्ध न हो, प्रत्युत दाता और ग्राहक दोनों के उपकार के लिये हो / देने वाले दाता और ग्रहण करने वाले ग्राहक, दोनों के हित के लिये हो / दाता को पुण्यलाभ हो और ग्राहक को हितकारी-उपयोगी हो वही दान विधिपूर्वक देना चाहिये / अयोग्य-जिससे अधर्म होता हो, नुकसान होता हो, ऐसी अयोग्य वस्तुओं का दान बुद्धिमानों को इष्ट नहीं है / उपयोगी व हितकारी दान इष्ट है। धर्मस्यादिपदं दानं, दानं दारिद्र्यनाशनम् / जनप्रियकरं दानं, दानं कीर्त्यादिवर्धनम् // 125 // अर्थ : दान धर्म का आदि पद है; दान दारिद्रय का नाश करने वाला है; दान (दाता को) लोकप्रिय करने वाला है और दान यशकीर्ति आदि को बढ़ाने वाला है // 125 // विवेचन : चार प्रकार का जो धर्म-दान, शील, तप और भावना बताया है; इन चारों में दान को प्रथम स्थान दिया है / दान से दारिद्रय दूर होता है, क्योंकि खुले दिल से अपनी लक्ष्मी का सद्व्यय करने वाले मानव पर लक्ष्मी अधिक खुश होती है। ज्यूं-ज्यूं वह देता है; त्यूं-त्यूं दुगुनाचौगुना होकर, उसके पास आता है। दान देने वाला लोगों में प्रिय होता है, सभी लोगों का वह प्रियपात्र हो जाता है / और दान देने से दुनिया में उसकी यशकीति बढ़ती है / जहा भी वह जाता है मान सम्मान पाता है / दान का महत्त्व दर्शाने के लिये ही ग्रंथकार ने चार बार दान शब्द का प्रयोग किया है॥१२५॥