________________ योगबिंदु गुरु, बैल जैसे शिष्यों को विविध देवों के पूजनादि में (चराते-चराते) लगाते हुये, अन्त में सम्यकदेव रूपी सञ्जीवनी बताते हैं और योग्य ज्ञान-भूमिका पर ले आते हैं / अनेक देवों की पूजा करते-करते जब सभी देवों से अमुक देव गुण में अधिक है, ऐसा निश्चय हो जाता है, तब अन्य देवों पर द्वेष भी नहीं होता और विशेष देव पर पूर्ण श्रद्धा रूप इष्ट सिद्धि हो जाती है // 120 // पूर्व सेवा में गुरु, गुरुपूजा-विधि, देव और देवपूजा-विधि बताकर, अब उन योग्य सुपात्रों को दान कैसे और किन-किन को देना, यह बताते हैं - पात्रे दीनादिवर्गे च, दानं विधिवदिष्यते / पोष्यवर्गाविरोधेन, न विरुद्धं स्वतश्च यत् // 121 // अर्थ : योग्य पात्र में और दीनादिवर्ग में विधिपूर्वक किया हुआ दान (बुद्धिमानों को) इष्ट हैं; और वह दान स्वयं के लिये बाधक न हो और न ही पोष्यवर्ग के लिये बाधक बनता है // 121 // विवेचन : योग्य पात्र अर्थात् जिस व्यक्ति को दान देने से धर्म की वृद्धि होती हो; दान लेने वाले के जीवन का विकास होता हो; उस व्यक्ति की जरूरत को ध्यान में रखकर, उसकी रक्षा करें / दानपात्र कौन-कौन है ? यहाँ ग्रन्थकार बताते हैं दीन, अनाथ, दुःखी आदि जिनका स्वरूप आगे कहेगें, उनको अपनी शक्ति के अनुसार, विधिपूर्वक दान देने की प्रवृत्ति बुद्धिमान लोग रखते हैं / पोषण करने योग्य जो माता-पिता आदि स्वकुटुम्बीजन या जो वृद्ध हो; उनकी पूज्यभाव से विधिपूर्वक सारसम्हाल लें तथा अपने घर में नौकरी-चाकरी करते-करते जो वृद्ध हो गया हो; अशक्त हो गया हो; आजीविका के लिये काम करने में असमर्थ हो गया हो; उनकी आजीविका का छेदनाश न हो जाय; इस प्रकार का दान देना चाहिये / वह दान भी स्वयं को अर्थात् देने वाले को अथवा लेने वाले को किसी प्रकार सभी बाधक नहीं होना चाहिये / अर्थात् दान योग्य वर्ग को यथाशक्ति, विधिपूर्वक इस प्रकार दान देना चाहिये कि जिससे किसी प्रकार का दोष न लगे, धर्म में किसी प्रकार की बाधा न आये / अपितु धर्म की वृद्धि हो, ऐसा दान देना चाहिये / हल, मुसल, चक्की, चाकू आदि, जो देने वाले दाता को भी पाप का कारण होते है और लेने वाले को भी पाप का कारण होते हैं, अपितु ऐसी वस्तुओं का दान, पापवृद्धि का कारण होने से, उनका दान निषिद्ध बताया है, वर्ण्य है // 121 // व्रतस्था लिङ्गिनः पात्रमपचास्तु विशेषतः / स्वसिद्धान्ताविरोधेन, वर्तन्ते ये सदैव हि // 122 // अर्थ : व्रतस्थ, मुनिलिंगी (दान के) विशेष पात्र हैं, क्योंकि वे अपचा-अपने लिये रसोई न बनाने वाले और सदा अपने शास्त्र-सिद्धान्त के अनुकूल आचरण करने वाले हैं // 122 // विवेचन : व्रतस्थ-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महाव्रतों को