________________ योगबिंदु के घास चारे को अपने पति बैल को चराती रही और इस प्रकार उसमें सञ्जीवनी भी साथ में आ जाने से कृत्रिम बैल परिवर्तित होकर पुरुष बन गया / इसी प्रकार जब तक जीवों को सम्यक् ज्ञान अथवा विवेक बुद्धि प्रकट नहीं होती; जब तक जीव योग्य भूमिका में आने में समर्थ न हुए हों तब तक, वे जो भी-जैसी भी देवपूजा, गुरुभक्ति, तप, जप आदि शुभ प्रवृत्ति करते हों उन्हें करने देना चाहिये, उसमें कोई दोष नहीं / क्योंकि अगर सर्वदेवों के प्रति ऐसा करने का निषेध करें, चारिसञ्जीवनी न्याय को न माने, तो देवगुरु की पूजाभक्ति आदि सगुणवृद्धि रूप जो इष्ट सिद्धि है, कैसे हो? अतः जब तक जीव अत्यन्त सामान्य भूमिका में है तब तक का यह न्याय है / क्योंकि अत्यन्त भोले-सीधे प्राणियों के लिये गीता में भी कहा हैं :- "न बुद्धिभेदं जनयेत् अज्ञानां कर्मसंगिनाम्" बाह्यभावमात्र से जो क्रिया में अनुरक्त है, आन्तरिक आत्मज्ञान पर जाने के लिये जिनकी बुद्धि असमर्थ है, ऐसे अज्ञानी जीवों को बुद्धिभेद पैदा नहीं करना चाहिये, क्योंकि पारमार्थिक ज्ञान को प्राप्त करना उनके सामर्थ्य से बाहर है। इसलिये वे जो करते हो, वहाँ से उनको विचलित नहीं करना चाहिये, विशेषतः प्राथमिक भूमिका में / तात्पर्य यह है कि सामान्य लोगों की जैसी जिस पर भी श्रद्धा है / उसी में उनको रहने देना चाहिये, उनकी श्रद्धा को विचलित नहीं करना चाहिये, क्योंकि निर्णयात्मक बुद्धि उनके पास होती नहीं और वे लोग इतोभ्रष्ट स्ततोभ्रष्ट हो जाते हैं / गीता में भी कहा है 'संशयात्मा विनश्यति'। कितनी सुन्दर, तटस्थ, विशाल-दृष्टि है ! // 119 // गुणाधिक्यपरिज्ञानाद्, विशेषेऽप्येतदिष्यते / अद्वेषेण तदन्येषां, वृत्ताधिक्य तथाऽऽत्मनः // 120 // अर्थ : गणाधिक्य के परिज्ञान से, स्वयं को अधिक श्रद्धा होने से; अन्य देवों के प्रति बिना द्वेषभाव के विशेष इष्टलाभ होता है // 120 // सभी देवों, गुरुओं और धर्मों को जान लेने पर मनुष्य को गुण-दोष का ज्ञान होता है अर्थात् किसमें क्या, कितने गुण हैं और कौन से दोष हैं, वह इस सत्य के जान लेता है। तत्पश्चात् जिसमें वह गुणों की अधिकता देखता है, सामान्यतः उसके उपर उसे विशेष पूज्य बुद्धि पैदा होती है / फिर उसे उसकी भक्ति करने की इच्छा होती है और जो अन्य देव हैं, उनके प्रति अद्वेषपूर्वक मध्यस्थ भाव पैदा होता है, क्योंकि अब उसके अन्दर ज्ञान का-विवेक का प्रकाश है / इसी प्रकार गुरुओं में और धर्मों में भी वह व्यक्ति अपने-आप निश्चय करता है / ग्रंथकर्ता का तात्पर्य यह है कि स्वयं अपनी बुद्धि की कसौटी से कसकर; सत्य-असत्य को यथार्थ जानकर; जो देव, गुरु, धर्म को अपनाता है; उसे अवश्य ही इष्ट सिद्धि होती है। क्योंकि बुद्धिबल से जो श्रद्धा मजबूत होती है, उसे कोई भी विचलित करने में समर्थ नहीं हो सकता / लेकिन जिनकी बुद्धि एक में अटक जाती है वह अडिग नहीं रह सकता।