________________ योगबिंदु हैं। इस प्रकार ब्रह्म से लेकर जड़ स्तम्ब पर्यन्त अखिल ब्रह्माण्ड में उसी प्रकृति की सत्ता है। ऐसी सर्वव्यापी उस प्रकृति को हम अगर एक ही स्वभाव वाली माने, तो स्वर्ग, नरक और मनुष्यलोक का सृजन एक जैसा ही होना चाहिये / क्योंकि एक स्वभाव वाली प्रकृति के सभी कार्य तुल्यपरिणाम वाले होने चाहिये और प्रकृति का अधिकार निवृत्त होने पर यम, नियम, आसनादि अनुष्ठानों को करके मुक्ति भी सभी की एक साथ होनी चाहिये, परन्तु ऐसा अनुभव में आता नहीं है / अतः प्रकृति को नानास्वरूपवाली ही मानना चाहिये और वह आवर्तभेद ही युक्तियुक्त घटित हो जाता है // 108 // पूर्वसेवा तु तन्त्रज्ञैर्गुरुदेवादिपूजनम् / / सदाचारस्तपो मुक्त्यद्वेषश्चेह प्रकीर्तिता // 109 // अर्थ : तन्त्रज्ञों ने यहाँ (अध्यात्म की प्राप्ति के लिये) गुरुदेवादि पूजन, सदाचार, तप और मुक्ति में अद्वेष वृत्ति को पूर्वसेवा कहा है // 109 // विवेचन : आत्मा, कर्म, मोक्ष आदि तत्त्वों की विस्तार पूर्वक चर्चा करके, अध्यात्म की प्राप्ति कितनी दुर्लभ है ? और कब उसकी प्राप्ति होती है इस बात को भली भाँति समझा कर, अब ग्रंथकार पुनः अपने मूल विषय पूर्वसेवा पर आते हैं। पूर्व सेवायोग रूपी प्रासाद पर चढ़ने के लिये सीढ़ी रूप प्रथम भूमिका है। वह योग के अंगरूप पूर्वसेवा कैसी है ? योगशास्त्रों का अनुभव पूर्वक सम्यक् अभ्यास करके, उनके तत्त्व को जानने वाले योगीन्द्रों ने अध्यात्म की प्राप्ति के लिये गुरुजनों की पूजा-श्रद्धा पूर्वक विनयभक्ति, आदर, सत्कार सेवा आदि करना; देव-वीतराग उनकी स्तुति करना, उनका ध्यान धारण करना, उनके नाम की माला जपना वह देवपूजा है / परमात्मा की पूजा करना, सदाचार-सत्यपथ की ओर ले जाने वाले सभी सत्य एवं आचारों का पालन करना, तपश्चर्या-छ: प्रकार का बाह्य छः प्रकार का अभ्यन्तर तप करना और मुक्ति पर संपूर्ण श्रद्धा रखना / मुक्ति के स्वरूप में द्वेष अरुचि, अनादर न करना आदि को पूर्व-सेवा कहा है // 109|| माता पिता कलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा / वृद्धा धर्मोपदेष्टारो, गुरुवर्गः सतां मतः // 110 // अर्थ : माता, पिता, कलाचार्य, उनके सम्बन्धी (माता-पिता आदि के सम्बन्धी भाई बहिन आदि) वृद्ध और धर्मोपदेशक सज्जनों को यह गुरुवर्ग अभीष्ट है // 110 // विवेचन : पूर्वसेवा में जो गुरु देव-पूजन आदि बताया है, अब उन सबकी, एक-एक की, विस्तृत व्याख्या बता रहे हैं / सर्वप्रथम गुरुजनों का आदर सत्कार करना चाहिये यह बताया है। अब गुरुवर्ग में कौन-कौन है यह बताते हैं, कि माता-जन्म देने वाली जननी, पालन करने वाली तथा वात्सल्यभाव रखने वाली को भी माता तुल्य समझना चाहिये / इसी प्रकार पिता-जनक तथा हमारे अभ्युदय के लिये सतत् चिन्ता करने वाले, वात्सल्यभाव रखने वाले को भी पितातुल्य मानकर,