________________ 74 योगबिंदु प्रकार का दिखाई देता है / इसलिये प्रकृति को विचित्र स्वभाववाली-नानास्वरूपवाली मानना ही उपयुक्त है, अगर प्रकृति को नानास्वरूप वाली न माने, एक ही स्वरूप वाली माने, तो एक आत्मा से प्रकृति जब अलग पड़े, तो एक आत्मा के साथ सभी जीवात्मा परब्रह्मरूप हो जाय, मुक्त हो जाय / एकजीव के मूक्त होते ही सारा संसार ही खाली हो जाय, परन्तु ऐसा अनुभव नहीं होता। इसलिये प्रकृति का यह नानास्वरूप केवल आवर्त की भिन्नता से घटता है। जिस आत्मा पर प्रकृति का अधिकार-सत्ताजोर निवृत्त हुआ हो, वह आत्मा चरमपुद्गल परावर्त में आता है अर्थात् जब एक से ज्यादा पुद्गलपरावर्त में भ्रमण करने का नहीं होता तब वह आत्मा अध्यात्मयोग की प्राप्ति कर सकता है; तभी वह योग का अधिकारी होता है। परन्तु जिसको अभी चरम से अन्य पुद्गलपरावर्तों में भटकने का होता है उसे इस योग की प्राप्ति नहीं होती इस प्रकार यह सब प्रकृति की विचित्रता आवर्त की भिन्नता से ही घटती है, सम्यक् विचार पूर्वक यह बात कही हैं // 106 // अन्यथैकस्वभावत्वादधिकारनिवृत्तितः / एकस्य सर्वतद्भावे, बलादापद्यते सदा // 107 // अर्थ : अन्यथा एक स्वभाव होने से एक को अधिकार निवृत्ति होने पर सर्वदा सभी को वैसा होने का प्रसंग बलात् आ पड़ता है / / 107 / / विवेचन : अगर प्रकृति को विचित्र स्वभावी नानास्वरूपवाली न माने, एक स्वरूपवाली ही माने तो दोष यह आता है कि एक व्यक्ति के उपर से प्रकृति की सत्ता निवृत्त होने पर संसार के सभी प्राणियों पर से पुद्गल अधिकार निवृत्ति का प्रसंग आ जाता है। परन्तु संसार में ऐसा अनुभव में नहीं आता। दूसरी ओर अगर एक व्यक्ति पर से अधिकार निवृत्त होने पर, सभी पर से अधिकार निवृत्त न हो तो उसका एक स्वभाव कैसे घटित हो, सिद्ध हो ? // 107 // तुल्य एव तथा सर्गः, सर्वेषां संप्रसज्यते / ब्रह्मादिस्तंबपर्यन्त एवं मुक्तिः ससाधना // 108 // अर्थ : तथा ब्रह्मादि से लेकर स्तम्ब पर्यन्त सभी प्राणियों की सृष्टि और ससाधन मुक्ति भी इस प्रकार तुल्य हो जाय // 108|| विवेचन : सांख्यशास्त्र में बताया है : ऊर्ध्वं सत्त्वविशालस्तमो विशालश्च मूलतः सर्गः / मध्ये रजोविशालो, ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तः // सात्त्विक प्रकृतिवाले विष्णु, ब्रह्मा, महेश आदि देव ऊपर स्वर्ग में रहते हैं, तमोगुण प्रधान नरकवासी पाताल में रहते हैं और रजोगुण प्रधान प्रकृतिवाले प्राणी मध्यलोक-मनुष्य लोक में रहते