________________ 70 योगबिंदु विवेचन : मुमुक्षु आत्माओं को ही अपुर्नबन्धक कहा है, क्योंकि अत्यन्त तीव्र विपाक के कारणभूत मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और प्रमादादि मलों को उत्तरोत्तर शुद्ध सम्यक्त्व के द्वारा दूर करके; सुदेव, सुगुरु, सुधर्म की सेवा करने से, सत्य ज्ञान और दर्शन से युक्त होकर, अप्रमत्तभाव से चारित्र पालने से उसकी आत्मा निर्मल अन्तःकरण वाली हो जाती है / और उत्तरोत्तर शुद्ध ऐसी सम्यक्दृष्टि का सम्बल-सहारा उसके पास होता है इसीलिये क्रमशः गुणस्थानक की श्रेणी में आगे बढ़ते-बढ़ते कर्ममल का क्षय करते हुये, भववृद्धि करने वाले कर्म के बीजों का नाश करते हैं और पुनः संसार में आना पड़े ऐसे कर्मों को बांधते भी नहीं है, अतः संसार की पुनरावृत्ति भी उनको नहीं होती / उनका मन हमेशा मोक्षमार्ग परायण होता है इसलिये योगाभिमुख, संसाराभिमुख-पूर्वसेवा ऐसे महापुरुषों को इष्ट नहीं / ऐसे अपुनर्बन्धक महात्मा ही उत्तम आत्म-स्वरूप को प्रकट कर सकते हैं, क्योंकि भवाभिष्वंग याने देवादि भव के भोगों को भी वे हेय समझते हैं अतः उन्हें वह पूर्वसेवा इष्ट है, जो मोक्षाभिमुखी हो और आत्मा को निर्मल बनाये / परन्तु अन्य जो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और अशुभ योगों में रहने वाले जीव है उनको यह कैसे घटित हो सकती है ? // 19 // तथा चान्यैरपि ह्येतद् योगमार्गकृतश्रमैः / संगीतमुक्तिभेदेन, यद् गौपेन्द्रमिदं वचः // 10 // अर्थ : योगमार्ग में किया है श्रम जिन्होंने, ऐसे अन्य (योगवेत्ताओंने) भी उक्तिभेद से वही कहा है / उसमें गोपेन्द्र (योगीराज) का यह वचन है // 100|| विवेचन : हमारे पूज्य आप्त पुरुषों ने मोक्ष की प्राप्ति के लिये जो योगमार्ग विस्तार पूर्वक बताया है, कि चरम-अन्तिम आवर्त में जीव शुद्ध विमल मन वाला होता है, इसलिये वही योगअध्यात्म के स्वरूप को श्रद्धापूर्वक साध सकता है। योगमार्ग में यानी योग के सम्बन्ध में जिन्होंने खूब परिश्रम करके शास्त्राभ्यास किया है, ऐसे अन्य योगवेत्ताओं ने भी उक्तिभेद से वही बात कही है / केवल भाषाभेद से हमें अलग मालुम होता है वस्तुतः बात वही है जैसे भगवान् श्रीगोपेन्द्रयोगीराज ने यह वचन नीचे के श्लोक में बताया हैं : अनिवृत्ताधिकारायां प्रकृतौ सर्वथैव हि / न पुंसस्तत्त्वमार्गेऽस्मिञ्जिज्ञासाऽपि प्रवर्तते // 101 // अर्थ : प्रकृति का अधिकार (जोर) जब तक पुरुष से सर्वथा निवृत्त नहीं होता; उसकी तत्त्वमार्ग में जिज्ञासा भी नहीं होती // 101 // विवेचन : श्री गोपेन्द्र योगीराज बताते हैं कि सांख्य मतावलम्बी भी ऐसा मानते है कि