________________ योगबिंदु 69 है इसलिये महापुरुषों ने अध्यात्मप्राप्ति के लिये चरमपुद्गलपरावर्त को हेतु बताया है वह न्याययुक्त है। योग्य ही है // 96 // अत एवेह निर्दिष्टा, पूर्वसेवाऽपि या परैः / साऽऽसन्नाऽन्यगता मन्ये, भवाभिष्वङ्गभावतः // 17 // अर्थ : अन्य महर्षियों ने जो पूर्वसेवा निर्दिष्ट की है, संसाराभिमुख होने से, उसे मैं (हरिभद्रसूरि) आसन्न (चरमावर्त के पास) और अन्य (अन्यपरावर्त में) मानता हूँ // 97|| विवेचन : ग्रंथकार का अभिप्राय यह लगता है कि चरमपुद्गलपरावर्त में की गई पूर्वसेवा ही मोक्षाभिमुखी है, उससे अन्य अचरमपुद्गलपरावर्त में की जाने वाली पूर्वसेवा संसाराभिमुखी है इसलिये उन्होंने पतञ्जलि आदि अन्य महर्षियों की पूर्वसेवा को संसाराभिमुखी बताया है, क्योंकि वह चरमावर्त में नहीं है अन्य परावर्तों में है / अर्थात् कपिल एवं पतञ्जलि आदि महर्षियों ने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि आदि जो योग की पूर्वसेवा और योग के अंग बताये हैं, वे भवाभिनन्दी जीवात्माओं को - अचरम पुद्गलकाल में रहने वालों को भी होती है। पतञ्जलि आदि महर्षि ऐसे जीवों को भव परम्परा का नाश करके, मोक्ष के समीप आये हुये मानते हैं, परन्तु सर्वज्ञ शासन में जहाँ सांसारिक भोग-फल की आकांक्षा रखने में आती हो वैसे तप, जप, स्वाध्याय, प्राणायाम अचरमावर्त-अनेक पुद्गल परावर्त में रहने वाले देव, मनुष्य, तिर्यञ्च भव की परम्परा करने वाले भवाभिनन्दी ही है ऐसा मैं (हरिभद्रसूरि) मानता हूँ // 17 // अपुनर्बन्धकादीनां, भवाब्धौ चलितात्मनाम् / नासौ तथाविधा युक्ता, वक्ष्यामो युक्तिमत्र तु // 98 // अर्थ : संसार समुद्र में भ्रमण करने वाले अपुनर्बन्धकादि (सम्यकदृष्टि) आत्माओं को तथाप्रकार की पूर्वसेवा इष्ट नहीं / इस विषय में युक्ति आगे कहेंगे // 98 // अपुनर्बन्धक का अर्थ टीकाकार ने सम्यक्दृष्टि किया है। संसार सागर में भ्रमण करने वाले सम्यक्दृष्टि आदि प्राणियों को तथाप्रकार की अर्थात् भोगाभिमुख, संसाराभिमुख पूर्वसेवा इष्ट नहीं है। क्यों ? किसलिये ? इष्ट नहीं है / उसे आगे के श्लोकों में युक्ति पूर्वक समझायेंगे // 98 // मुक्तिमार्गपरं युक्त्या, युज्यते विमलं मनः / सद्बुद्ध्यासन्नभावेन, यदमीषां महात्मनाम् // 19 // अर्थ : क्योंकि इन (अपुनर्बन्धक-सम्यक्दृष्टि) महात्माओं का मन मोक्षमार्ग परायण होता है और उत्तरोत्तर शुद्ध सम्यकत्वभाव आसन्न (समीप) होने से उनका मन मलरहित होता है, यह युक्ति सिद्ध बात है // 19 //