________________ 66 योगबिंदु अर्थ : महाबुद्धिशाली को धर्म के लिये लोकपंक्ति कल्याण का अंग-हेतु है, लेकिन लोकपंक्ति निमित्त किया गया धर्म अल्पबुद्धि को, पाप का कारण होता हैं // 90 // विवेचन : ग्रंथकार ने दो बाते कहीं है धर्म किया करते-करते लोकरञ्जन का हो जाना एक अलग बात है, परन्तु लोकरञ्जन के लिये ही धर्म कार्य करना बिल्कुल दूसरी बात है / क्योंकि यहाँ बुद्धिशाली भी सामान्य नहीं वरन् महान् बुद्धिशाली का विशेषण दिया है / महाबुद्धिशाली मनुष्य के पास विवेकबुद्धि होती है। वह धर्मक्रिया, सम्यक्-दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति के लिये करता है / उसका लक्ष्य शुद्ध है / ऐसी धर्मक्रिया करते हुये कभी लोकरञ्जन भी साथ में हो जाय तो उसे किसी प्रकार की हानि नहीं होती, क्योंकि उसकी क्रिया का लक्ष्य अच्छा है / विवेक बुद्धि उसके पास है इसलिये उसके लिये लोकपंक्ति कल्याण श्रेय का कारण होती है, लेकिन मन्दमति तो लोकरञ्जन के लिये ही धर्म किया करता है / विवेक, बुद्धि और परिणाम की अशुद्धि होने से उस की धर्मक्रिया भी पाप के लिये होती है। ऐसा महापुरुषों ने कहा है // 10 // लोकपंक्तिमतः प्राहुरनाभोगवतो वरम् / धर्मक्रियां न महतो, हीनताऽत्र यतस्तथा // 11 // अर्थ : लोकपंक्ति वाले अनाभोगिक प्राणी की धर्मक्रिया (पूर्वोक्त की अपेक्षा से) अच्छी है, क्योंकि उसमें धर्म की हानि नहीं // 91 // विवेचन : लोकपंक्ति-प्रधान प्राणियों में भी तरतमभाव देखा जाता है। उसी की अपेक्षा से ग्रंथकार कहते हैं कि लोकरञ्जनप्रधान धर्मक्रिया करने वाले मिथ्यादृष्टि वालों में भी जो अनाभोगिक-आग्रहरहित, सरल, नम्र प्रकृति वाले होते हैं, उनकी धर्मक्रिया मन्दमति कदाग्रही प्राणियों की धर्मक्रिया से अच्छी होती है, क्योंकि सरल, नम्र और ऋजु व्यक्ति की क्रिया अनर्थ करने वाली नहीं होती / अनाभोगिक का अर्थ टीकाकार ने सम्मूर्छितप्रायःस्वभाव वाला किया है अर्थात् वस्तु स्वभाव को जाने बिना ओघ प्रवाह से जो धर्म क्रिया करता है। उसे कुछ समझ नहीं कि यह धर्मक्रिया क्यों, किस कारण से, किसलिये की जाती है ? परन्तु लोग करते हैं, लोग अच्छा समझते हैं, इसलिये वह भी कर लेता है। परन्तु सरल और नम्र होने से अगर उसे सन्त-पुरुषों का समागम मिल जाय, सन्मार्ग मिल जाय, तो उसके जीवन की दिशा का मोड़ सत्य की तरफ भी हो सकता है। इसलिये ऐसे व्यक्ति की धर्मक्रिया हानिकारक नहीं होती // 11 // तत्त्वेन तु पुनर्नैकाऽप्यत्र धर्मक्रिया मता / तत्प्रवृत्त्यादिवैगुण्याल्लोभक्रोधक्रिया यथा // 12 // अर्थ : तात्त्विकरूप से तो यहाँ एक भी धर्मक्रिया मान्य-सम्मत नहीं, क्योंकि लोभ और क्रोध क्रिया की भाँति उनकी प्रवृत्ति विगुण प्रेरित है / / 92 //