________________ 67 योगबिंदु विवेचन : वास्तव में तो यहाँ ऐसी एक भी धर्मक्रिया सम्मत नहीं, क्योंकि जैसे लोभ और क्रोध से प्रेरित क्रिया से आत्मा को शान्ति नहीं मिल सकती वैसे ही अचरम पुद्गलपरावर्त वाले प्राणी की धर्मक्रियाएँ तत्त्व से विरुद्ध होने के कारण और विषय, कषाय, प्रमादादि विगुणों से मलीन आशय मूलक होने से अध्यात्म-आत्मस्वरूप को पाने में असमर्थ होती हैं इसलिये अध्यात्म योगियों ने ऐसी धर्मक्रियाओं को स्वीकार नहीं किया है ||92 / / तस्मादचरमावर्तेष्वध्यात्मं नैव युज्यते / कायस्थितितरोर्यद्वत् तज्जन्मस्वामरं सुखम् // 13 // अर्थ : अचरमपुद्गलपरावर्त में भटकती आत्मा अध्यात्म भाव को प्राप्त कर सकती नहीं, पर वनस्पतिकाय में उसकी कायस्थिति अनंत पुद्गल परावर्तन कल होती है। वहाँ से निकलकर क्रमशः देव-मनुष्य के सुख प्राप्त करती है, पर सद्धर्म के योग्य आत्मशक्ति प्रकट कर सकती नहीं है // 13 // विवेचन : वनस्पतिकाय में जीव की स्थिति अनन्त उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी प्रमाण होती है, उसमें वह अनन्त रूपों में अनन्त बार जन्म-मरण धारण करता है / उस काय में से निकलते हुये जीव को अनन्त काल व्यतीत हो जाता है। वहाँ उन जन्मों में सुख के हेतुभूत स्वतन्त्र बुद्धि, विवेक, अणुव्रत, महाव्रत का अभाव होता है इसलिये स्वर्ग सम्बन्धी सुख उनके लिये असम्भव बताये है। इसी प्रकार अचरमावर्तों में जीवों को अध्यात्म-आत्मस्वरूप की उपलब्धि असम्भव बताई है। सादी भाषा में जैसे वृक्ष, पेड़, पौधों को स्वर्ग सम्बन्धी सुख असम्भव है वैसे अचरमावर्तों को अध्यात्म असम्भव है // 93|| तैजसानां च जीवानां, भव्यानामपि नो तदा / यथा चारित्रमित्येवं, नान्यदा योगसम्भवः // 14 // अर्थ : तेजस्काय जीव, भव्य हों तथापि जैसे उन्हें चारित्र सम्भव नहीं वैसे अन्य आवर्ती में जीवों को योग सम्भव नहीं // 9 // विवेचन : तेजस्काय तथा ऐसी ही स्थिति वाले पृथ्वीकाय, अपकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय तथा स्थावरकाय में रहने वाले जीव, भव्य हों तथापि ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना करने में असमर्थ हैं / इसी प्रकार अचरमावों में भटकते प्राणियों को, योग सम्भव नहीं / योग प्राप्ति उनके सामर्थ्य से बाहर हैं। जैनों में जीव की भव्य और अभव्य दो स्थितियां बताई हैं / भव्य उसे कहते हैं जिसमें