________________ योगबिंदु निजपरनारी त्यागज करके, ब्रह्मचारी व्रत लीधो / स्वर्गादिक याको फल पामत्रो, निज कारण नवि सिध्यो // 4 // सम्० बाह्यक्रिया सब त्याग परिग्रह, द्रव्यलिंग धर लीनो / देवचन्द्र कहे या विध तो हम, बहुतवार कर लीनो // 5 // सम्० इस छोटी सी सज्झाय में मुनिजी ने गागर में सागर भर दिया है / मुनिजी ने बताया है कि पांच महाव्रतों को हम चाहे कितनी ही सूक्ष्मता से पाल ले, लेकिन अगर हमारी दृष्टि निर्मल नहीं, 'सम्यग्दृष्टि नहीं, सम्यग्श्रद्धा नहीं' तो सब व्यर्थ है / इस प्रकार निर्मल दृष्टि बिना क्रियाएँ तो जीव ने सैकड़ों बार की हैं, लेकिन कोल्हू के बैल की भाँति वह वहीं का वही ही रहता है, कहीं लक्ष्य स्थान पर पहुँच नहीं पाता // 8 // भवाभिनन्दिनो लोकपंक्त्या धर्मक्रियामपि / महतो हीनदृष्ट्योच्चैर्दुरन्तां तद्विदो विदुः // 89 // अर्थ : भवाभिनन्दी जीव लोकपंक्ति-लोकरञ्जन से महान् धर्म क्रिया को भी हीन दृष्टि से करते हैं, अतः तत्त्वज्ञ मनीषी इसे दुष्ट परिणाम को लाने वाली क्रिया कहते हैं // 89 // विवेचन : भवाभिनन्दी जीव चाहे कितनी ही ऊँची से ऊँची महान् धर्मक्रिया जैसे दान दे, व्रत पाले, तप करे, प्राणायाम करें, आसन पर स्थिर रहे, उल्टे मस्तक वृक्ष की डाली को पकड़ कर लटके, भस्म लगावे, धुआँ पीये, सूर्य और अग्नि की आतापना ले, पंचाग्नि तप तपे, महान् लोकोत्तर धर्म जिसकी सम्यक् आराधना करने से कल्पवृक्ष, चिन्तामणि, कामधेनु से भी महान् इच्छित फल की प्राप्ति हो, ऐसा लोकोत्तर धर्म - देवपूजा, गुरुभक्ति, जीवदया भी पाले, ब्रह्मचर्य पाले, परिग्रह का त्याग करे; परन्तु इन सभी ऊँची से ऊँची धर्मक्रिया के पीछे लक्ष्य केवल लोकरञ्जन ही हो यानी लोक में यश कीर्ति बढ़े, लोग मुझे महात्मा-महामुनि कहे, मैं सभी लोगों से मान-पूजा प्राप्त करूं, ऐसी केवल लोकेषणा जैसी हीन बुद्धि-वृत्ति ही होती है / अध्यवसाय अशुद्ध होने से नरक, तिर्यञ्च, गति रूप दुष्ट परिणाम ही आता है। इसलिये केवल लोगों को खुश करने के लिये जो धर्मानुष्ठान किया जाता है उसे तत्त्व मनीषी व्याव्य कहते हैं // 89 // यहाँ शंका होती है कि अगर भवाभिनन्दी अच्छे परिणाम वाला और विवेकी हो तो उच्चगति प्राप्त करता है या नहीं ? उसी का उत्तर दिया है : धर्मार्थं लोकपंक्तिः स्यात् कल्याणाझं महामतेः / तदर्थं तु पुनधर्मः, पापायाल्पधियामलम् // 10 //