________________ 64 योगबिंदु वारांगना के नृत्य, संगीत तथा उनके साथ संभोग क्रिया, ये सब पुण्य से मिली है ऐसा मानने वाले जीव संसार में रचे-पचे रहते हैं। संसार में आनन्द मानने वाले होते हैं / संसार में अत्यन्त आसक्ति के कारण उनके भोगों का परिणाम दीर्घसंसार होता है। भवाभिनन्दी की मानसिक स्थिति बहुत गिरी हुई होती है / वे इतनी हलकी वृत्तिवाले होते हैं कि दुःखियों के दुःख को देखकर भी उनका हृदय पिघलता नहीं बिल्कुल दयाविहीन होता हैं / संवेदनशीलता कोसो दूर होती है / लोभी-कजूस भी इतने ही होते हैं / दीन-जिसका मुख देखना भी किसी को अच्छा न लगे ऐसे अदृष्ट कल्याणरूप उपाधि से युक्त होते हैं / ईर्षालु भी इतने ही होते हैं / दूसरे को पैसे-टके, आबरु, प्रतिष्ठा से सुखी देखकर दुःखी होने वाले होते हैं / भयभीत-राजा, चोर, भाई, बन्धु कोई मेरी वस्तु न ले जाय, मेरी वस्तु लूटी न जाय, मुझे मार न दे इस प्रकार हमेशा भयभीत रहने वाले होता है, धूर्त-ठग, दूसरों को ठगने में निष्णात होते हैं / अज्ञानी-मूर्ख होते हैं / अतत्त्वाभिनिवेश-विपरीत वस्तु स्वभाव में कदाग्रह करने वाले होने से जो भी आरम्भ-कार्य करे उसके मूल में अज्ञान होने से निष्फल ही सिद्ध होता है। पारमार्थिक रूप से उनका कोई भी कार्य सफल नहीं होता, क्योंकि ऐसी सम्यक् सुदृष्टि का ही उनको अभाव है // 87|| लोकाराधनहेतोर्या, मलिनेनान्तरात्मना / क्रियते सत्क्रिया साऽत्र, लोकपंक्तिरुदाहृता // 48 // अर्थ : लोक पंक्ति का लक्षण बताते हैं : लोकरञ्जन हेतु मलिन आशय से जो सत्किया की जाती है; उसे लोकपंक्ति कहते हैं // 88 // विवेचन : आत्मशुद्धि, कर्मनिर्जरा जिसका लक्ष्य नहीं, केवल लोगों को खुश करने के लिये लोगों की दृष्टि में अपने आपको महान् दिखाने के मलिन आशय से, जो सत्कार्य, धर्म, क्रिया आदि की जाती है, उसे लोकपंक्ति या लोक व्यवहार कहा है। ऐसी धर्मक्रियाओं से व्यक्ति कुछ भी उपलब्ध नहीं कर पाता। श्री देवचन्द्रजी महाराज ने समकित की सज्झाय में सुन्दर कहा है : समकित नवि लद्यु रे, ए तो रूल्यो चतुर्गति मांहे / त्रस थावर की करुणा कीनी, जीव न एक विराध्यो, त्रण काल सामायिक करता शुद्ध उपयोग न साध्यो // 1 // सम्० झूठ बोलवा को व्रत लीनो; चोरी को पण त्यागी / व्यवहारादिक महानिपुण भयो, पण अन्तर दृष्टि न जागी // 2 // सम्० उर्ध्वभुजा करी उंधा लटके; भस्म लगा धुम गटके / जटाजूट शिर मुंडे झूठो, बिण श्रद्धा भव भटके // 3 // सम्०