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अथ सप्तमोऽध्यायः प्रथातिदीर्घकालेन मुमूर्ष निर्गदं ब्रुवे । यज्ज्ञानाज ज्ञायते लोकोगीवासौ भिषग्वरः ॥ १॥ अव अति दीर्घकाल में मरने वाले बीमारी रहित, परंतु अरिष्ट का लक्षण जिन के उत्पन्न हो गया है, उनके मरण का समय कहता हूँ, जिसके ज्ञान से वह उत्तम वैद्य योगी के सदृश लोगों में समझा जाता है ॥१॥
येन दत्तं बलिं काकाः क्षुधिता नोपभुजते । स वर्षाभ्यन्तरे प्राणान् परित्यक्ष्यति निश्चयात् ॥ २ ॥ नीरोग स्वस्थ अथवा रुग्ण अस्वस्थ जिसके हाथ से दी हुई वलि को बुभुक्षित कौवे नहीं खाते हैं, वह एक वर्ष के मध्य में निश्चय से मर जायगा ॥२॥
अरुन्धती न यः पश्येत् सप्तर्षीणां समीपगाम् । वर्षमात्रमिह स्थित्वा परलोकं स यास्यति ॥ ३॥
आकाश में सप्तर्षि नक्षत्रों के समीप में स्थित अरुन्धती नक्षत्र को जो नहीं देखता है, अर्थात् जिसे अरुन्धती नक्षत्र नहीं देख पड़ता है, वह मनुष्य एक वर्ष मात्र इस लोक में ठहर कर फिर परलोक चला जायगा, अर्थात् मर जायागा ॥३॥
दीपनिर्वाणदुर्गन्धं न च जिघ्रति यः सुधीः । सोऽपि वर्षमिह स्थित्वा परलोकं पुनर्ब्रजेत् ॥ ४॥
जो विद्वान् बुझे हुये तैल के दीप की गन्ध को नहीं सूघता, अर्थात् जिसको बुझे हुये तैल के दीपकी गन्ध न मालूम दे; वह भी केवल एक