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षष्ठोऽध्यायः
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भिषग्वरो वेत्ति य एव रोगिणं मुमूर्षुकं ज्ञानमयेन चक्षुषा । स विज्ञलोकेष यशस्वितां ब्रजेत् धनानि वैद्येषु धुरीणतामपि ॥
इति श्रीमहामहोपाध्याय पं० मथुराप्रसाद दीक्षितकृते रोगि मृत्युविज्ञाने षष्ठोऽध्यायः ।
जो उत्तम वैद्य ज्ञानरूपी अपनी आँखों से मरणासन्न रोगी को समझ लेता है अर्थात् प्रत्यक्ष की तरह देख लेता है, वह विद्वत्समाज यशस्विता को प्राप्त होता है और धन ( उत्तम वैद्य यशस्वी होने से ) प्राप्त होता है तथा समस्त वैद्यों में कालज्ञान होने के कारण सर्वश्रेष्ठ माना जाता है ॥ १८ ॥
इति श्री म० म० पं० मथुराप्रसाद कृत रोगिमृत्युविज्ञान का
षष्ठ अध्याय समाप्त ।