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रोगिमृत्युविज्ञाने जिसके शरीर में वायुजन्य शोभा अत्यधिक हो, और मल फट गया हो तथा पिपासा अत्यधिक हो, वह मृत समान शीघ्र ही मरने वाला है ॥ १३॥
आमाशयसमुत्थाना यस्य स्यात्परिकर्तिका । तृष्णा गुदग्रहश्चोग्रः स ज्ञेयो मरणोन्मुखः ॥ १४ ॥ जिसके आमाशय से उत्पन्न कैंची के काट के समान, वेदना-उग्र पीडा हो, तृष्णा हो, और उग्र-भयंकर गुदग्रह हो, जिसमें एनेमा आदि कार्य न कर सके, वह मरणोन्मुख है ॥ १४ ॥
पक्वाशयमभिव्याप्य विसंज्ञं विदधद् मरुत् । कण्ठे द्यधुरकं शब्दं कुर्वन्नाशु विनाशयेत् ॥ १५ ॥ पक्वाशय में व्याप्त होकर जो वायु रोगी को विसंज्ञ-चेष्टारहित कर दे तथा कण्ठ में घुर घुर शब्द करे, वह उस रोगी को शीघ्र ही मार देगा ॥ १५॥
चूर्णकेन समं वक्त्रं दशनाः कर्दमोपमाः। शिप्रायन्ते च गात्राणि यस्य सोऽस्ति मुमूर्षुकः ।। १६ ॥ जिसका चूने के समान या पिसे हुये सफेद आटे के समान मुख हो जाय और दाँत कर्दम के समान मैले हों तथा शरीर के प्रत्येक अङ्ग से पर्याप्त स्वेद-पसीना आता हो वह मुमूर्षु (मरना चाहता) है। अधिक समय नहीं ठहरेगा ॥ १६ ॥
तृष्णाश्वासशिरोरोग-मोहदौर्बल्यकूजनैः ।। शकद्भेदेन च स्पृष्टः प्राणानाशु जिहासति ॥ १७ ॥ जो रोगी तृष्णा-पिपासा, श्वास-ऊर्वश्वास, शिरोग्रह-शिरोवेदना, मोह-मूर्छा, दौर्बल्य-दुर्बलता, कूजन-कुछ अब्यक्त शब्द करना, अर्थात् अव्यक्त काँखना और शकृद्भेद-विच्छिन्न मल से युक्त हो जाय तौ वह जल्दी ही प्राणों को त्यागेगा ॥ १७ ॥