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प्रथमोऽध्यायः न चारिष्टमनुत्पाद्य मृत्युभवति रोगिणाम् । सर्वदेत्थमरिष्टानि जनयित्वैव पञ्चता ॥ ५ ॥ इसी प्रकार विना अरिष्ट के उत्पन्न हुए रोगी की मृत्यु नहीं होती है । यह अरिष्ट मृत्यु का सूचक है, उत्पादक नहीं है । इस अरिष्ट के उत्पन्न होने के अनन्तर ही मृत्यु होती है । जो अरिष्ट जितने दिन पूर्व मृत्यु को सूचित करता है वह उतने दिन पूर्व उत्पन्न होता है ।। ५ ॥
न्यग्रोधप्लक्षवृक्षादौ फलं पुष्पं न चेक्षते । मृत्युस्तु सर्वभावेन जनयत्येव तत्पुरः ॥ ६॥ यद्यपि बरगद, पाकड़, पीपल आदि वृक्ष फल-पुष्पोत्पत्ति की आकांक्षा नहीं करते अर्थात् इन वृक्षों में फूल के विना ही फल उत्पन्न होते हैं, परंतु मृत्यु, सर्वप्रकार से अरिष्ट को प्रथम उत्पन्न करके ही होती है ॥ ६ ॥
न चेदृशमरिष्टं वा यन्न मृत्युं सुबोधयेत् । मृत्युं न जनयत्येतत् किन्तु बोधयते स्फुटम् ॥ ७॥ ऐसा कोई अरिष्ट नहीं है जो मृत्यु को सूचित न करै, यह अरिष्ट मृत्यु को उत्पन्न नहीं करता है, किन्तु मृत्यु को सूचित करता है ।।७॥
अरिष्टाभासतोऽरिष्टं ज्ञात्वा वक्त्यचिकित्सितम् । प्रज्ञाया अपराधोऽयं नत्वरिष्टस्य लक्ष्मणः ॥ ८॥ अरिष्टाभास से अर्थात् अरिष्ट तो नहीं है परंतु कुछ लक्षणों से (चिह्नों से) भ्रमात्मक अरिष्ट मान कर अचिकित्स्य निश्चित मरण जान कर जो रोगी का परित्याग कर देता है, यह प्रज्ञा का अपराध है, जिसके कारण अरिष्ट न होने पर अरिष्ट मान गये, परंतु अरिष्ट के लक्षण का दोष नहीं है । क्योंकि पूर्णरूपेण अरिष्ट न होने पर भी अरिष्ट मान लिया ॥८॥