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रोगिमृत्युविज्ञाने
अरिष्टस्वरूपवर्णस्वरादिवैषम्य-ज्ञानाज् ज्ञेयमरिष्टकम् । चिकित्सकानां बोधार्थ तान्येवात्र निरूपये ॥ ९॥ वर्ण-देह के स्वरूप में वैषम्य होने पर, आधा शरीर अन्य प्रकार का हो जाय और आधा अन्य प्रकार का हो, जिसका विशेष रूप से वर्णन आगे करेंगे । स्वर-आदि पद से गन्ध स्पर्शादिक का ग्रहण करना। इनके वैषम्य-ज्ञान से अरिष्ट का लक्षण जानना । इन अरिष्ट के स्वरूपों को चिकित्सकों के परिज्ञानके लिये यहाँ पर निरूपण करता हूँ।
वर्णगन्धस्वरस्पर्शश्रोत्रघ्राणरसैरपि ।
तन्द्रासचस्मृतिवलै निगौरवलाघवैः॥ १०॥ वर्ण-शरीर का शुक्लनीलादि स्वरूप, गन्ध-आकस्मिक दुर्गन्ध सुगन्ध का परिज्ञान, स्वर-दीन खर स्खलित आदि, स्पर्श-कहीं शीत कही उष्ण । एवम् खर-मृदु । छने पर मृदु शरीर खर हो जाय, अथवा छूने पर अन्तर्हित हो जाय किंवा उच्छन हो जाय, श्रोत्र-प्रतिक्षण कानों में विभिन्न प्रकार की ध्वनि आवै, घ्राण-निष्कारण सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध भिन्न-भिन्न प्रकारसे आवे, रस-जिह्वा में मधुराम्ल लवणादिक रसों की प्रतीति न हो, अथवा भिन्न प्रकार की वस्तु में भिन्न प्रकार के रस की प्रतीति हो, तन्द्रा-निद्रा तो नहीं आवे परंतु आँखें अर्धविकसित रहें, सत्त्व-सामर्थ्य, स्मृति-स्मरणशक्ति, बल-भारादिवहनसामर्थ्य अर्थात् पौरुष, ग्लानि-मन की अप्रसन्नता, सदा चित्तवृत्ति गिरी सी बनी रहे। गौरव-शरीर भारी प्रतीत हो, लाघव-शरीर सर्वथा लघु हलका प्रतीत हो, ॥ १० ॥
माहारपरिणामैश्च विहारोपद्रवैरपि । अनुमानं चरेत्पूर्व तत औषधमाचरेत् ॥ ११ ॥
आहार-परिणाम-भोजन किया हुआ पचे नहीं, विहार-चलने में अभिरुचि न हो, थकावट अधिक आवे, उपद्रव-विभिन्न प्रकार के