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६० शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता चलता है। छोटे बच्चे किंडर गार्डेन उपकरण, बाल फ्रेम, ब्लैक बोर्ड आदि के सहारे ही अपने विषय में आगे बढ़ पाते हैं। प्राथमिक कक्षाओं की पुस्तकों में चित्रों की भरमार रहती है, ताकि न केवल श्रव्य, वरन् दृश्य भी उनकी ज्ञान वृद्धि के लिए सामने प्रस्तुत रह सकें। व्यायामशालाओं में बौद्धिक कम और क्रिया पक्ष अधिक, रहता है। शल्य क्रिया, नट विद्या, बाजीगरी, अभिनय आदि बिना अभ्यास के, बिना मार्गदर्शक की सहायता के सीखे नहीं जा सकते।
नीति शिक्षा में वातावरण की उपयुक्तता पर बहुत जोर दिया गया है, ताकि निर्धारित सिद्धांतों का प्रयोग उस परिकर में देखा जा सके। नाटक, अभिनय, फिल्म भी प्रकारांतर से अभिरुचि को दिशा विशेष में मोड़ने, साधने का ही काम करते हैं। फौजी ड्रिल में भी अभ्यास की महत्ता सर्वोपरि है। छावनियों में युद्धाभ्यास होते रहते हैं। स्काउटिंग में जितना बौद्धिक है, उससे अधिक क्रिया पक्ष। उसके लिए प्रयोगों को कर दिखाने के रूप में परीक्षा ली जाती है। कैंप फायर मनोविनोद मात्र नहीं है। उनमें विभिन्न परिस्थिति में क्या कर दिखाने की आवश्यकता पड़ती है ? इसे व्यवहार में लाया जाता है। उस परिकर में क्रिया-कुशलता ही सराही जाती और पुरस्कृत होती है। समग्र शिक्षा मात्र पुस्तकों के लेक्चरों के सहारे पूरी नहीं होती, उसके साथ क्रिया प्रयोग भी जोड़ने पड़ते हैं। यदि उनकी उपेक्षा अवहेलना होती रहती है तो उस भूल को शीघ्र ही सुधारा जाना चाहिए। शिक्षा पद्धति का एक अंग अनुभव अभ्यास ही होना चाहिए। यों इसके लिए छात्रों की मंडली बनाकर पर्यटन की सुविधा दी जाती है, पर उसमें मनोरंजन मात्र कर लिया तो क्या काम बनेगा ? जो कुछ देखा जाता है उससे मिलने वाली शिक्षा एवं प्रेरणा को हृदयंगम करते चलने वाले उस प्रयोजन की पूर्ति, उत्साही सूक्ष्म बुद्धि वाले प्रशिक्षकों द्वारा की जानी चाहिए।
शिक्षार्थियों में सुसंस्कारिता संवर्धन के लिए भी मात्र जानकारी देने से काम नहीं चलेगा, प्रयोगों का सहारा लेना ही पड़ेगा। इसके लिए यदि समुचित परिपूर्ण व्यवस्था नहीं है तो वे प्रयोग जहाँ होते हैं