________________
शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता|| ५६]
सेवा सहकारिता का अभ्यास ही नहीं,
चस्का भी
कुछ विषय ऐसे हैं जिन्हें पुस्तकों के माध्यम से अथवा प्रवचन द्वारा सिखाया-समझाया जा सकता है। उनके लिए प्रत्यक्ष प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती। इतिहास, भूगोल, मनोविज्ञान, नागरिक शास्त्र, समाज शास्त्र, भूगर्भ, खगोल आदि ऐसे विषय हैं, जिनकी पृष्ठभूमि जान लेने से काम चल सकता है। तत्त्व दर्शन को भी पुस्तकों के सहारे अथवा कथा, सत्संगों, विवेचनों में सम्मिलित होकर जानने-समझने का अवसर मिल सकता है, किंतु कुछ विषय ऐसे हैं, जिनमें प्रयोगों की, उपचार उपकरणों की आवश्यकता होती है। शरीरशास्त्र चिकित्सा विज्ञान, संगीत, शिल्प विज्ञान आदि को समझने-समझाने के लिए प्रयोगों की, साधन-सामग्री की आवश्यकता पड़ती है। उन्हें मात्र स्वाध्याय सत्संग के द्वारा नहीं समझाया जा सकता है। अतराल की गहरी परतों तक किसी तथ्य को पहुँचाने के लिए ऐसे दृश्यों, आयोजनों की आवश्यकता पड़ती है, जो जिज्ञासु की अनभिज्ञता को भिज्ञता में बदल सके। विषय की उपलब्धियों से अवगत होकर, उन्हें कार्यान्वित करने के लिए तत्पर हो सके।
शिक्षा ऐसा ही विषय है जो मात्र कथन श्रवण से पूरा नहीं होता। पुस्तकें जानकारी तो देती हैं पर वस्तुस्थिति भली प्रकार समझं सकने की गहराई तक नहीं पहुँचाती। उनके लिए प्रयोगों की आवश्यकता पड़ती है। साधन जुटाने होते हैं। संगीत सीखने के लिए न केवल वाद्य यंत्र चाहिए, वरन् स्वर ज्ञान कराने वाला और भूलों को सुधारने वाला निष्णात शिक्षक का योगदान भी साथ-साथ चलना चाहिए। विज्ञान की कक्षाओं के लिए प्रयोगशाला आवश्यक समझी जाती है। गृह विज्ञान, पाक विज्ञान, धात्रिकला जैसे विषयों के संदर्भ में भी प्रत्यक्ष प्रयोग तथा आवश्यक दृश्य साधन जुटाने पर ही काम