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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकत
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सलाह से लेने में कोई दोष नहीं माना जाता था, परंतु आज तो स्थिति भयंकर है। इतने तीव्र नशीले पदार्थ विकसित कर लिए गए हैं कि उन्हें जहर से कम कुछ भी नहीं कहा जा सकता। उस पर भी नशा सेवन व्यसन से आगे बढ़कर फैशन बनता जा रहा है। सेवन की कोई मर्यादा ही नहीं रह गई है। तीव्र नशे और उनके अमर्यादित सेवन की प्रतिक्रियाएँ समूचे समाज को ही जर्जर किए डाल रही हैं। ऐसी स्थिति में यदि नशे को भारी अधर्म ठहराया जाए तो इस निर्धारण को सही और समयानुकूल ही कहा जाएगा।
यही बात छल छद्म के संबंध में भी है। प्राचीन काल में सत्य व्यवहार एक सीधी-सादी बात के रूप में सहज स्वीकार्य था। कभी दो व्यक्ति या वर्ग आपस में टकराते थे, तो उनमें आमने-सामने सीधा संघर्ष ही होता था, पर आज तो अधिकांश व्यक्तिगत या सामूहिक लड़ाईयाँ छल-प्रपंच के आधार पर लड़ी जाती हैं। पहले तो कूटनीति की भी कोई आचार संहिता थी, जिसमें उसे सीमित प्रसंगों में, सीमित मात्रा में ही प्रयुक्त किया जाता था, पर अब तो छल प्रपंच की कोई सीमा मर्यादा भी नहीं रह गई। भाईयों और पड़ोसियों - सहकर्मियों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र तक, कोई पक्ष इससे मुक्त नहीं है। विपक्ष को धोखे में डालकर विश्वासघात की सीमा तक जाकर भी अपनी कथित जीत के ताने-बाने बुनना सामान्य बात हो गई है। मित्र बनकर शत्रुता करने वाले, शौर्य के स्थान पर धोखेबाजी की धूर्तता बरतने वाले अपने को कुशल शिकारी जैसा श्रेय दिलाना चाहते हैं। मानो मछलीमार, चिड़ीमार ही सबसे बड़े वीर विजेता कहलाने लगे हैं।
पुरातन काल में यह प्रवृत्ति नहीं थी। दिन में युद्ध करके दिन छिपे बाद सभी सैनिक शत्रु पक्ष की ओर से निश्चिंत होकर आराम करते थे। विरोधी पक्षों की ओर से लड़ने वाले भी शाम होने पर परस्पर मिल लेते थे, सलाह कर लेते थे, पर अब तो विश्वासघात को, छल को ही रणनीति का प्रमुख अंग मान लिया गया है।
लड़ाई ही नहीं सामान्य जन-जीवन में छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए भी छल-प्रपंच का ही प्रयोग होता देखा जाता है। पैसा समेटने के लिए, यश लूटने के लिए, मेरे को आगे और तेरे को पीछे धकेलने के