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[२] शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता बच्चों का मन रखने के लिए अथवा दुष्टों की दुष्टता निरस्त करने के लिए प्रत्यक्ष सत्य की मर्यादाएँ तोड़ी जाती हैं। भगवान कृष्ण के जीवन में ऐसे ही कई उतार-चढ़ाव हैं। इस दृष्टि से धर्म लक्षणों की कोई स्पष्ट रेखा खींची हुई नहीं है। विभिन्न स्थलों पर धर्म के भिन्न-भिन्न लक्षणों का प्रतिपादन मिलता है। इस आधार पर भी कोई सर्वसम्मत अभिमत उभरकर सामने नहीं आता।
. ऐसी स्थिति में परंपरागत विधि निषेधों की ऊहापोह में न उलझकर शाश्वतधर्म "युगधर्म" के नाम से नीति नियमों का वर्गीकरण करके, उन्हें स्वीकार कर लेना हमारे लिए अधिक उपयोगी होगा। धर्म के अनेक लक्षण हैं—प्रत्येक, लक्षण में अनेक बारीकियाँ हैं। उन सबका जोड़-तोड़ बिठाने पर धर्म के प्रमुख अंगों की संख्या भी इतनी बड़ी हो जाती है, कि उनके निर्वाह की सतर्कता बरतना तो दूर, उन्हें पूरी तरह याद रखना भी कठिन हो जाता है।
ऐसी दशा में यही उपयुक्त लगता है कि सामयिक समस्याओं का समाधान कर सकने वाले, सामयिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकने वाले नीति नियमों को ही प्रमुखता दी जाए और उन्हें ही ऊपर उठाया-उछाला जाए। उन्हें सार्वभौमिकता एवं सज्जनता की कसौटी पर जाँचते हुए खरे स्तर तक पहुँचाया जाए। इन दिनों कई दुर्गुण असाधारण रूप से पनप रहे हैं। वे प्राचीनकाल में इतने उग्र रूप में नहीं थे, इसलिए तब उनके प्रतिरोध पर अधिक जोर देने की आवश्यकता भी नहीं समझी गई, परंतु आज की स्थिति में उनकी उपेक्षा का अर्थ है विनाश को निमंत्रण देना। इसलिए अब उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। उनके विरोध-प्रतिरोध के लिए सशक्त तत्र खड़े करने ही होंगे।
उदाहरण के लिए नशेबाजी को ही लें। प्राचीनकाल में उसे उतनी बड़ी विकृति नहीं माना गया था, क्योंकि तब नशे के नाम पर तीव्र प्रतिक्रिया वाले अत्यधिक हानिकारक पदार्थों का प्रचलन नहीं था। जो थे, वे सौम्य नशे थे और उपयुक्त परिस्थितियों में उनके मर्यादित उपयोग से उतनी हानि की संभावना नहीं थी। उनमें किन्हीं अंशों में औषधीय गुण भी रहते थे तथा उस रूप में चिकित्सक की