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५४|| शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता लिए, कदम-कदम पर धोखेबाजी-विश्वासघात को ही प्रमुख हथियार मानकर, प्रयुक्त होते देखा जाता है। ऐसी स्थिति में जब मनुष्य का मनुष्य पर से, मनुष्यता पर से ही विश्वास टूटा जा रहा है, तो छल को कौशल नहीं अधर्म कहकर ही उस पर कड़ा प्रतिबंध लगाना होगा। प्राचीन काल में ऐसी वीभत्स स्थिति पैदा न होने से भले ही उसे इतना घातक घोषित न किया गया हो, परंतु आज तो उसे सर्वसम्मत अधर्म घोषित करना ही होगा।
कथन का अभिप्राय इतना भर है कि समय की समस्याओं का अध्ययन करते हुए, उन्हें सुलझा सकने योग्य नीति निर्धारण करने होंगे। उनके ही प्रचार और लोक-शिक्षण का आधार बनाना होगा। व्यक्ति और समाज की उलझी हुई समस्याओं का जो समग्र समाधान दे सके, उसे ही "युग धर्म" कहा जा सकता है। ऐसे नीति निर्धारण को जन-जीवन में प्रमुखता मिले ऐसा वातावरण बनाना होगा।
युग की आवश्यकता के अनुरूप धर्म धारण या नीतिनिष्ठा के सूत्रों को इन दिनों इस प्रकार वर्गीकृत किय जाए तो ठीक रहेगा
(१) शालीनता सज्जनता, भलमनसाहत, विनम्रता का सहज स्वभाव, वाणी और व्यवहार से उसका परिचय देना। दूसरों को, छोटे-बड़े सभी को उचित सम्मान देना। वाणी में मधुरता, सहजता
और सार-संक्षेप के समावेश का अभ्यास। अधिकार से अधिक कर्तव्यों का ध्यान रखना। विवादों और विग्रहों से यथासंभव बचना। विचारों में आदान-प्रदान का क्रम चलता रह सके, ऐसा संतुलन बनाए रखना। सुधार के लिए स्वयं को प्रस्तुत करने का सहज उत्साह बनाए रखना।
(२) दूरदर्शिता निर्धारणों और प्रयासों के दूरगामी परिणामों को समझना और महत्त्व देना। उतावली में, आवेश में आकर्षण वश ऐसा कुछ न करना, जिससे तत्काल थोड़ा लाभ पाने के बाद भविष्य में तिरस्कार सहना और पश्चात्ताप करना पड़े।
(३) तत्परता-सुव्यवस्था श्रमशीलता जागरूकता बनाए रखना। शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद का उन्मूलन। समय को सुनियोजित क्रिया-कलापों में व्यस्त रखना। हर क्षण को सार्थक