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४६|| शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव करते हैं। दांव लग जाने पर उस धूर्तता को बुद्धिमत्ता सिद्ध करते हैं और शेखी बघारते हैं।
यह मान्यता एवं प्रचलन एक से दूसरे पर पहुँचते हैं, उन्हें प्रभावित करके, अपने चंगुल में जकड़ते हैं। छूत की बीमारी की तरह यह व्याधि बढती ही चली जाती है। अनैतिकता का प्रवाह इसी आधार पर तेजी पकड़ता जाता है। दूरदर्शिता के अभाव में लोग अंतिम परिणामों का अनुमान नहीं लगा पाते। कुकर्मों के दुष्परिणामों की बात नहीं सोच पाते और तात्कालिक लाभ के लिए कुछ भी करने को, यहाँ तक कि अनीति अपनाने को भी तैयार हो जाते हैं।
जन साधारण का स्वभाव अनुकरणप्रिय होता है। बच्चे इसी आधार पर अपनी अभिरुचि विकसित करते हैं, भाषा ज्ञान सीखते हैं और पसंदगी-नापसंदगी का निर्धारण करते हैं। बड़े हो जाने पर भी यह सिलसिला चलता रहता है। संगति का फल सभी जानते हैं। सुसंग और कुसंग से किस प्रकार मनुष्य प्रभावित होता है इसके उदाहरण अपने ही इर्द-गिर्द ढेरों ढूँढ़े जा सकते हैं।
गिरना सरल है, उठना कठिन। पतनोन्मुख प्रवृत्ति अधिक आकर्षक होती है। वे तात्कालिक लाभ देने वाली भी प्रतीत होती हैं और कौतूहलवर्धक भी लगती हैं। छोटे बच्चे आग, साँप जैसी चमकीली वस्तुओं को पकड़ने के लिए लपकते हैं। उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं होता कि इसका परिणाम क्या हो सकता है ? सामान्य जन भी दूरगामी परिणामों का विचार नहीं कर पाते।
नशेबाजी जैसे दोष इसी कारण पनपे हैं। आरंभिक दिनों में उत्तेजना का चस्का मनोरम लगता है, पर कुछ ही दिनों में वह अभ्यास में उतरकर न छूटने वाली आदत बन जाता है। उसके कारण नशेबाज बदनामी सहता, दरिद्र बनता, शरीर को जर्जर करता, परिवार को विपत्ति में डुबाता और अंत में बेमौत मरता है। यह कालांतर में मिलने वाला परिणाम है, पर पहले दिन तो खुमारी लाने वाला चस्का ही सब कुछ प्रतीत होता है। लत उसी कारण बड़ी होती है। अन्य दुष्प्रवृत्तियों के संबंध में भी यही बात है। वे एक दूसरे पर चढ़ दौड़ती है और सुविस्तृत क्षेत्र को अपने कब्जे में जकड़ लेती