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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यक ४७ हैं। इन दिनों अनैतिकता का व्यापक प्रचलन इसी कारण बढ़ता चला जाता है।
कुछ मनस्वी ऐसे भी होते हैं जो सुदृढ़ता, परिपक्वता के आधार पर दूसरे अनेकों को बदल देते हैं, बिगड़े वातावरण को सुधार देते हैं, पर अधिकांश ऐसे नहीं होते, वे क्षीण मनोबल के रहते हैं। दूसरों को प्रभावित नहीं कर पाते, स्वयं प्रभावित होते और वातावरण के बहाव में आँधी में उड़ने वाले पत्तों की तरह कहीं से कहीं पहुँचते रहते हैं। वातावरण ही उन पर छाया रहता है। बाजीगर 'वातावरण' के इशारे पर वे कठपुतली की तरह नाचते रहते हैं ।
तथ्य के अनुरूप उचित तो यह होता कि उत्कृष्टता का वातावरण बने और समझदारों का समुदाय उसमें रहकर अपना उत्साहवर्धक विकास करे। उपयुक्त वातावरण जहाँ हो वहाँ जा पहुँचना या श्रेष्ठता के वातावरण को अपने इर्द-गिर्द आच्छादित कर लेना, उत्कर्ष के अभ्युदय के परिवर्तन परिष्कार के यही दो उपाय हैं, किंतु कठिनाई यह है कि ऐसा किस प्रकार संभव हो ? दुष्प्रवृत्तियों से भरा वातावरण कैसे हम से दूर हो ? कैसे हम उनसे परे हो पाएँ ? दोनों ही संभावनाएँ समान रूप से कठिन हैं।
इतने पर भी इसका एक सरल हल उपलब्ध है। महामानव जीवित रूप से अपने समीपवर्ती क्षेत्र में भले ही न हों, पर उनकी कथा-गाथाओं में पाया जाने वाला ऐतिहासिक स्वरूप, इस उद्देश्य के लिए लिखे गए जीवन साहित्य में संग्रहीत पाया जा सकता है। उसे बार-बार मनोयोगपूर्वक पढ़ा जा सकता है। उन्हें समीप विद्यमान अनुभव किया जा सकता है और उनकी श्रेष्ठताओं को हृदयंगम करने के लिए, जीवन में उतारने के लिए संबद्ध हुआ जा सकता है। यह स्वयं भी अपने निमित्त किया जा सकता है और दूसरे अन्यान्यों को भी उपलब्ध कराया जा सकता है।
निकटवर्ती एवं समीपवर्ती क्षेत्र में मानवी गरिमा से सुसंपन्न व्यक्ति यदि सरलतापूर्वक न खोजे जा सकें तो दूरवर्ती, पूर्ववर्ती संपन्न व्यक्तियों की तलाश करनी पड़ेगी। यह प्रक्रिया श्रमसाध्य तो है, पर असंभव नहीं । ऐतिहासिक, पौराणिक कथा - गाथाओं का समुद्र मंथन