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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता || ३५ मिलेगी। साथ ही पढ़ने-पढ़ाने का सिलसिला भी इस प्रकार चल पड़ेगा, जिसकी उत्साहवर्धक सफलता सहज ही उपलब्ध हो सके।
इस ओर अग्रसर होने के लिए प्रथम कार्य यही सामने आता है कि छात्रों और शिक्षकों के बीच किसी प्रकार संबंध मधुर हों। यदि इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि द्वार खुल गया और समस्याओं को सुलझाने वाला आधार बन गया। इसके लिए किसी अतिरिक्त कौशल की आवश्यकता नहीं है। गाय दूध देती है, बछड़ा पीता है। इसलिए पहले शिक्षकों की ओर से ही इतना अपनत्व विकसित किया जाए कि वह छात्रों को अनुभव होने लगे। यथार्थता छिपती नहीं। पोल बनावट की ही खलती है। इसलिए हर शिक्षक को यह मानकर चलना चाहिए कि छात्र उनके अपने बालक हैं। अभिभावकों की तरह उनके हित-अनहित का ध्यान उन्हें भी रखना है। भार वहन उन्हें ही करना है। सुधार परिष्कार के संबंध में उनकी जिम्मेदारी दूनी है। अभिभावक तो दुलारने और अर्थ-व्यवस्था जुटाने भर तक सीमित कार्य कर पाते हैं। जिस स्थिति में वे हैं, उसमें इससे अधिक की कोई आशा भी नहीं की जाती। एक हाथ में लकवा या पोलियो हो जाने पर दूसरा हाथ ही दोनों के बदले का काम अकेला ही करता है। लंगड़ा व्यक्ति लकड़ी की टाँग लगाकर भी एक पैर से चल लेता है। अध्यापकगण अपने को ऐसी परिस्थितियों से बँधा हुआ अनुभव करें। अभिभावकों से जितना बने उससे संतोष करें। अधिक दायित्व निभाने के लिए उनका मार्गदर्शन करते रहें। छात्रों की तरह उनके अभिभावकों को भी स्वयं सुधरने और उसकी छाप बालकों पर छोड़ने की प्रेरणा देनी चाहिए। जो उन्हें करना चाहिए, जो रीति-नीति अपनानी चाहिए, इसका मार्गदर्शक, विचारशील अध्यापकों से बढ़कर और कोई हो नहीं सकता।
गलती करने पर कड़ी डाँट पिलाने या भर्त्सना करने का तरीका गलत है। इसकी प्रतिक्रिया विवाद, प्रतिरोध, दुराग्रह के रूप में सामने आती है। पुराने जमाने में बाप-बेटे को, सास-बह को, शिक्षक-छात्र को गलतियों पर धमकाने, अपशब्द कहने और मारने पीटने तक के अभ्यस्त रहते थे। उनका दूसरी ओर से कोई बड़ा