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|३४|| शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता छात्रों की ओर से, अभिभावकों की ओर से, अधिकारियों की ओर से उन्हीं की खिंचाई होती है।
यों साधारणतया अध्यापक ऐसी दुर्घटनाओं में अपनी कोई खोट नहीं देखते और अपने संबंध में निर्दोष होने की मान्यता रखकर, मन ही मन झुंझलाते, खींजते रहते हैं तो भी यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो उन पर यह आरोप होता है कि असफल छात्रों की गतिविधियों में कहाँ कब कमी रही है ? इसका अनुमान वे न लगा सके। उस कमी को दूर करने के लिए जो उपाय संभव थे, उसके संबंध में न तो निर्धारण कर सके और न उन्हें चरितार्थ करने के लिए कोई कारगर कदम ही बढ़ा सके।
छोटी-सी गलतियाँ होने पर भी बडों को ही उनका दोषी बनाए जाने का आम प्रचलन है। बच्चों की शरारत पर पड़ोसी उनके माँ-बाप से ही लड़ने लगते हैं, कि तुम्हीं लोगों ने बच्चों को सिर पर चढ़ाया और बिगाड़ा है। उन्हें ही खरी-खोटी सुननी पड़ती है। यहाँ तक कि कई बार तो हाथा-पाई, मार-पीट तक की नौबत आ जाती है। वधू का कसूर उसके पति पर थोपा जाता है कि वह उसे क्यों कायदा करना न सिखा सका ? यहाँ तक, कि किसी के पालतू कुत्ते द्वारा किसी राहगीर को काट लिए जाने पर, उसके मालिक की खबर ली जाती है। यही बात अनगढ़ कुसंस्कारी बच्चों के संबंध में भी है। फेल होने पर तो अध्यापकों का सिर नीचा होता ही है, पर यदि उनमें दोष-दुर्गुण पनपते हैं, कुसंस्कारिता उभरती है तो प्रकारांतर से उसका दोष अभिभावकों की तरह अध्यापकों पर भी कम नहीं आता। बच्चों का सुधार और अपना बचाव करने के दोनों उद्देश्य तभी पूरे होते हैं, जब उस संदर्भ में समुचित सावधानी बरती जाए और सुधार परिष्कार का प्रयास संपर्क काल में निरंतर करते रहा जाए।
इस प्रयास की पृष्ठभूमि इस आधार पर बनती है कि शिक्षार्थी और शिक्षक के बीच पारस्परिक संबंध कैसे, किस स्तर के रह रहे हैं ? यदि दोनों पक्ष भाव-संवेदनाओं में बँधे रह सकें, तो सुधार प्रयोजन सहज ही पूरा होता रहेगा, प्रगति प्रयासों को भी सफलता