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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यक ३३
अध्यापकों और छात्रों के बीच सघन संपर्क बने
अभिभावकों और बालकों के बीच आत्मीयता का सघन संबंध होता है। इसी से प्रेरित होकर वे बालकों के लिए सभी आवश्यक साधन-सामग्री जुटाते रहते हैं। आवश्यक काम छोड़कर भी उन्हें प्रसन्नता प्रदान करने के लिए खिलाते, दुलारते हैं। उनके नटखटपन पर क्रोध न लाकर उसे दर गुजर करते रहते हैं, यथासंभव समझाते- बुझाते रहते हैं, विवेक जगाते और औचित्य - अनौचित्य का भेद समझाते रहते हैं। उनका भविष्य उज्ज्वल होने की आशा लगाए रहते हैं, कमियों को दूर करते हैं। खीज और निराशा से ग्रसित नहीं होते, वरन् आस्थापूर्वक अपने पक्ष का कर्त्तव्य पालन करने में कुछ उठा नहीं रखते, भले ही बालक उपेक्षा अवमानना ही क्यों न बरतते रहें। जिस हद तक संभव है, वे उन्हें सुयोग्य समुन्नत बनाने की आशा ही नहीं सजोए रखते, वरन् इस संदर्भ में जो कुछ बन पड़ता है उसे कर दिखाने में भी भूल नहीं करते। वे जानते हैं कि बच्चे के बनने-बिगड़ने में उन्हें भी श्रेय या अपयश मिलने वाला है। इसलिए बच्चों की अनुपयुक्त प्रतिक्रिया दीख पड़ने पर भी अपने पक्ष पर आँच नहीं आने देते।
अभिभावकों से बढ़कर दायित्व अध्यापकों का है, क्योंकि जो क्षमता, परिस्थिति एवं सहज श्रद्धा उन्हें उपलब्ध है, वह अभिभावकों के पास प्रायः नहीं ही होती है। छात्रों के उत्थान - पतन में वे भी समान रूप से भागीदार माने जाते हैं। जिस कक्षा का रिजल्ट खराब हो जाता है, उसके संबंध में शिक्षकों से जबाव -तलब किया जाता है। दोषी पाए जाने पर उन्हें तबादले का, पदावनति का तथा दूसरे प्रकार का दंड दिया जाता है। यों कसूर अधिकतर विद्यार्थियों का ही होता है । प्रायः मन लगाकर न पढ़ने के कारण ही वे फेल होते हैं। तो भी विषय को आकर्षक बनाकर व छात्रों में दिलचस्पी पैदा न कर सकने की अक्षमता के कारण अध्यापकों की भी भर्त्सना होती है।