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|३६] शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता प्रतिरोध भी नहीं होता था, पर अब समय बदल गया है। हर किसी में अहमन्यता अत्यधिक बढ़ गई है। कोई किसी भी कारण अपनी निदा-भत्र्सना नहीं सुनना चाहता। मारपीट, गाली-गलौज जैसी बात को तो समय ही नहीं रहा। इससे सुधार के स्थान पर मार्गदर्शक को उलटे विद्रोह-प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। बदला लेने को उतारू पक्ष से मूंछे नीची करके किसी प्रकार समझौता करना पड़ेगा। इस स्थिति को आने न देना ही श्रेयस्कर है। समझना चाहिए पुराना समय चला गया साथ ही प्रताड़ना देकर अनुशासन बनाए रखना भी असंभव हो गया है।
___ अब नैतिक मूल्यों के जीवन में समावेश हेतु छात्रों को सहमत करने का प्रसंग आता है। प्रत्यक्ष विश्व व्यवस्था के यों तो अनेक पक्ष पाठ्यक्रमों में सम्मिलित हैं। बालकों की आयु और व्यवस्थाओं में अनुरूप उन जानकारियों का विस्तार होता चलता है जिन्हें अध्यापकगण जानते भी हैं और सिखाते भी हैं। प्रशिक्षण-ट्रेनिंग विद्यालयों में उन्होंने इस विधि को भली प्रकार जाना भी है। पुस्तकों की कुंजियाँ भी मिलती हैं। यह ढर्रा तो अपनी पटरी पर लुढ़कता ही रहता और फेल पास होते-हवाते विद्यार्थी भी सब जान ही लेते हैं। न जानने या कम जानने पर इतनी ही हानि है कि उपयुक्त पद पर नियुक्त न हो सके। इस स्थिति में भी व्यक्ति मजदूर फेरी, उद्योग
आदि अपनाकर, किसी प्रकार अपना गुजारा कर ही लेता है। इन पंक्तियों में ध्यान उस केंद्र पर आकर्षित किया गया है, जिसमें कमी रहने पर व्यक्ति स्वयं गई-गुजरी स्थिति में रहता है और अपने संपर्क क्षेत्र को भी उलझाता, सताता रहता है। यह केंद्र है नीति निष्ठा का, जिसके अंतर्गत व्यक्तित्व की आदर्शवादिता और लोक व्यवहार में शालीनता आती है। इसे दूसरे शब्दों में नागरिकता एवं सामाजिकता भी कह सकते हैं। इसके कुछ थोड़े-से संदर्भ पाठ्य-पुस्तकों में पाए तो जाते हैं, पर यह नहीं बताया जाता कि इन्हें जीवन में, कार्य में कैसे समाविष्ट किया जाए ? अवरोधक दुष्प्रवृत्तियों को निरस्त कैसे किया जाए, ताकि व्यक्तित्व को प्रतिभा संपन्न बनाने का अवसर मिले ?