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|२४|| शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता हटा सकने में समर्थ समझा जाता है। उसके साथ पीड़ित पक्ष की भाव-संवेदना, आशा अपेक्षा पूरी तरह जुड़ जाती है। वे सोचते हैं कि यदि चिकित्सक पूरा ध्यान दें तो उस पीड़ित परिवार की जीवन नौका पार लग सकती है। जिनका समय ही आ गया है, उन्हें छोडकर अधिकांश को बचा लेने का श्रेय अनुभवी चिकित्सक प्राप्त कर सकता है। इसके बदले निर्धारित फीस के अतिरिक्त जन्म भर याद रहने वाली कृतज्ञता, सद्भावना, उन्हें चिरकाल तक मिलती रहती है। अध्यापक भी ऐसे ही चिकित्सक हैं, जो अनगढ़-टूटे व्यक्तित्वों को श्रेष्ठ समन्नत बनाने में सहज सफल हो सकते हैं।
- इसके विपरीत यदि बीमारी की भयंकरता, महामारी के "हा, हा कार" की "त्राहि-त्राहि मची होने पर भी, चिकित्सक उपेक्षा बरतें, समय रहते हुए भी चिकित्सा में प्रमाद बरतें और मौज-मस्ती को प्रधानता दें तो वह व्यवहार हर किसी की दृष्टि में अखरेगा। उससे रोगियों को तो हानि उठानी ही पड़ेगी, चिकित्सक भी निंदा, तिरस्कार का भाजन बनेगा। उसे अपयश भी मिलेगा और वह आत्मसंतोष का लाभ भी नहीं पा सकेगा। इस कारण भविष्य में उसे जन सहयोग भी मिलेगा। स्वार्थी प्रमादी को प्रतिष्ठा कहाँ मिलती है ? उसका सहायक कौन बनता है ? उसके लिए प्रशंसा के शब्द किसके मुँह से निकलते हैं ?
यही बात अध्यापकों के ऊपर भी ज्यों की त्यों लागू होती है। उदीयमान पीढी के बारे में उक्ति है कि "पूत के पांव पालने में ही दीखने लगते हैं।" अगले दिनों छात्रों को देश की बागडोर सँभालनी है, समाज की सुव्यवस्था बनानी है, प्रगति की योजनाएँ साकार करके दिखानी हैं। यदि उनका व्यक्तित्व उच्चस्तरीय नहीं हुआ, तो उन्नत भविष्य की आशा पर तुषारापात हो जाएगा। चरित्रहीन व्यक्ति कितने ही क्रिया कुशल क्यों न हों घटिया स्तर की मनोभूमि के रहते समग्र उत्थान का कार्य पूरा न कर सकेंगे। वे अपनी कृतियों में छिद्र रखेंगे और उन्हीं में होकर, उत्कर्ष की आशा का सार तत्त्व बहा देने का दोष लगता दिखाई देगा। ऐसी दशा में किसी महत्त्वपूर्ण क्षेत्र का कोई महत्त्वपूर्ण कार्य बन नहीं पड़ेगा। यदि ज्यों त्यों करके लोग दिन