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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता | २३] सोचना पड़ेगा और उसका हल निकालना पड़ेगा। सामने आ खड़ी जिम्मेदारी को स्वयं ही वहन करना होगा, क्योंकि इसका विकल्प है ही नहीं। यह कार्य किसी अन्य विभाग से नहीं कराया जा सकता। इसे नौकरों से नहीं कराया जा सकता, न वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाक्टर, वकील व्यवसायी ही इसे पूरा कर सकते हैं, क्योंकि उनका गीली मिट्टी की तरह, कच्ची उम्र के, विकास के लिए उपयुक्त मनोभूमि वाले छात्र वर्ग के साथ निकट का संपर्क ही नहीं बन पाता। बिना संपर्क बने कोई किसी के व्यक्तित्व परिष्कार के लिए कुछ कर भी नहीं सकता।
केवल अध्यापक ही ऐसा वर्ग है, जो नई पीढ़ी को न केवल शिक्षित-साक्षर बनाता है, वरन अपनी शिक्षक स्थिति के कारण उन्हें सुसंस्कृत भी बना सकता है। किसान ही कृषि कर सकते हैं जुलाहे नहीं, क्योंकि कार्य करने के लिए विषय की प्रवीणता भी चाहिए और अवसर भी। अन्य वर्ग कितने ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हों, उन्हें वह अवसर प्राप्त नहीं कि व्यक्तित्व के विकास की सही आयु वाले छात्र उनके संपर्क में लगातार बने रहें। यह कार्य धर्मोपदेशक भी नहीं कर सकते, क्योंकि वे थोड़ी देर घटाटोप की तरह बरसकर हवा के साथ उड़ जाते हैं। सिंचाई के लिए तो पौधे के अनुसार समय-समय पर रिमझिम बरसने वाले बादल चाहिए। धर्मोपदेशक, नेता आदि उत्तेजना पैदा करके, बाढ़ जैसा उभार ला सकते हैं, पर वे छात्रों को सुविकसित बनाने वाला वह काम नहीं कर सकते, जो उनके साथ लंबे समय तक रहने वाले, श्रद्धासिक्त अध्यापक कर सकते हैं। इसलिए भावी पीढ़ी को व्यक्तित्व संपन्न, प्रतिभावान, प्रामाणिक एवं प्रखरता संपन्न बनाने की आशा अपेक्षा अन्य किसी वर्ग से नहीं की जा सकती।
__महामारी फैलने पर उससे संबंधित विशेषज्ञों और कुशल चिकित्सकों की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। जिनके प्राणों पर बीत रही है, ऐसे रोगी तथा उस परिवार के रोते-कलपते सदस्य अपनी सारी आशाओं का केंद्र चिकित्सक को मानते हैं। उसे भगवान समझ सकते हैं, जो उनके अंधकारमय भविष्य और संत्रस्त वर्तमान को