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| २२|| शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता भविष्य में और भी ऐसी सरलताएँ, सुविधाएँ आविष्कृत हो सकती हैं, जो छात्रों को पाठ पढ़ा देने वाले कार्य का स्थान ले लें। तब हो सकता है कि ऐसी स्थिति में नियुक्त अध्यापकों को ज्यों-त्यों करके अपना समय गुजारना पड़े या आवश्यकता घट जाने पर कोई दूसरा काम तलाशना पड़े ? कम उपयोगी वस्तुओं और व्यक्तियों का भार किसी हद तक कुछ समय तक वहन भर कर लिया जाता है। उन्हें अनिवार्य स्तर की आवश्यकता मानकर, सिर-माथे पर बिठाने जैसा सन्मान और महत्त्व नहीं दिया जा सकता। तिरस्कृत-उपेक्षित अध्यापक को वैसी प्रसन्नता एवं प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो सकती जैसी गुरुकुल युग में होती रही और भविष्य में भी होनी चाहिए।
अध्यापक गौरवान्वित हों, उनका उच्चस्तरीय मूल्यांकन किया जाए, अभिभावक उनके प्रति कृतज्ञ रहें, छात्र बड़े अधिकारी या व्यापारी बन जाने पर भी उनके चरणों की धूलि मस्तक पर रखते रहें, यह तभी संभव है, जब अध्यापक, व्यक्तित्वों में प्रतिभा और सुसंस्कारिता उभारने की बढ़ी-चढ़ी जिम्मेदारी वहन करें। भले ही यह कार्य वर्तमान शिक्षा पद्धति का अंग न माना जाता हो, भले ही इसकी अनिवार्यता उनकी वेतन की शर्तों में शामिल न हो, भले ही कानूनी ढंग से उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य न किया जा सकता हो, तो भी उनके पद की गौरव-गरिमा इस बात के लिए विवश करती है कि वे अपने छात्रों का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए अभिभावकों जितना ही रस लें। अभिभावक शिक्षण कला में प्रवीण नहीं होते। सुसंस्कारिता का महत्त्व उन्होंने नहीं समझा और इसके लिए कोई दिशा धारा भी उन्हें ज्ञात नहीं होती। ऐसी दशा में अनजान होने के कारण अभिभावकों को तो क्षमा भी किया जा सकता है, पर अध्यापक इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। वे यह कहकर छुट्टी नहीं पा सकते कि उन्हें पाठ्यक्रम पूरा करने भर का वेतन मिलता है।
प्रश्न मानवी मूल्यों के संरक्षण और अभिवर्धन का है। वह स्वभावतः उन्हें ही हल करना होगा, जिन्हें उसके लिए अवसर प्राप्त है। इच्छा या अनिच्छा से उन्हें ही लोक कल्याण की व्यापक दृष्टि से