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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता
शिक्षा ही नहीं दीक्षा भी
गिराना सरल है, उठाना कठिन। एक माचिस की तीली एक छप्पर से आगे बढ़कर पूरे गाँव को स्वाहा कर सकती है। पर उतना बड़ा साधन संपन्न गाँव ज्यों का त्यों खड़ा करने में असाधारण रूप से समय, साधन और श्रम लगाने की आवश्यकता पड़ेगी। छत पर खड़े व्यक्ति को हल्का-सा धक्का देकर जमीन पर गिराया जा सकता है। उसे हाथ-पैर टूटने जैसा आघात लगाया जा सकता है, किंतु कुएँ का पानी नीचे से ऊपर लाने के लिए रस्सी-बाल्टी ही काफी नहीं, तदनुरूप शक्ति नियोजित करने की भी आवश्यकता पड़ती है। वातावरण में अस्वच्छता फैलाना हो तो बिना जड़ की अमरबेल की तरह भी समूचे पेड़ को आच्छादित किया जा सकता है। काई और जलकुंभी देखते-देखते सारे जलाशय पर छा जाती है परंतु उपयोगी कृषि करने के लिए तो भूमि को उर्वर बनाने, बढ़िया बीज डालने, खाद-पानी, रखवाली जैसे अनेक प्रबंध करने की आवश्यकता पड़ती है। यही बात मनुष्य में सत्प्रवृत्तियाँ उभारने के संबंध में भी लागू होती है। उसे अपनाने में नाविक जैसा साहस, कौशल एवं पराक्रम चाहिए, तभी स्वयं नदी पार करना और अन्यों को पार उतारना संभव होता है।
शिक्षक यों देखने में सामान्य वेतन पाने वाले और निर्धारित पाठ्यक्रम के संबंध में कुछ बतलाते रहने वाले श्रमिक भर प्रतीत होते हैं, पर गंभीरतापूर्वक देखा जाए तो उनकी उपयोगिता, आवश्यकता एवं गरिमा असाधारण प्रतीत होती है। उनके ऊपर लदी जिम्मेदारियाँ इतनी भारी प्रतीत होती हैं, जिनको उठाने, इधर-उधर ले जाने के लिए क्रेनों की आवश्यकता पड़ती है। यों शिक्षकों का मोटा काम पाठ्यक्रम पूरा करा देना, छात्रों को उपदेश, परामर्श भर देना प्रतीत होता है, परंतु बात इतने भर से बनती नहीं है। पढ़ाई पूरी करने में सहायता देने वाले तो अब अनेक मार्ग निकल आए हैं।