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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता || २५ गुजारते रहे, प्रगति के वातावरण आधार खड़े न हो सके, तो बदलते समय की बढ़ती माँगों को कैसे पूरा किया जा सकेगा ? उसकी पूर्ति का दायित्व कौन वहन करेगा ?
शिक्षा, साक्षरता, की आवश्यकता से कोई इनकार नहीं करता। वह तो पेट को भोजन देने की तरह, मस्तिष्क को विकसित करने, समझबूझ और कौशल बढ़ाने की दृष्टि से नितांत आवश्यक है। इसे सभी जानते भी हैं और मानते भी हैं। इसी आधार पर समूचा शिक्षा का तंत्र खड़ा किया गया है। अनुभव वृद्धि की दृष्टि से अन्यान्य उपाय भी काम में लाए जाते हैं। यह सब तो यथावत चलने ही चाहिए। वरन् इन प्रयासों में और भी अधिक अभिवृद्धि होनी चाहिए ताकि अधिक सूझबूझ वाले, अधिक सुशिक्षित और क्रिया कुशल व्यक्ति विनिर्मित हो सकें। इतने पर भी यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए, कि यदि व्यक्तित्वों में शालीनता का समावेश न हुआ, दृष्टिकोण का परिष्कार और व्यवहार में सदाशयता का, चरित्रनिष्ठा का पुट न लग सका तो चतुर होते हुए भी लोग खोखले बनकर रह जाएँगे। आदर्शवादिता के अभाव में उस शून्य को भरने के लिए निकृष्टता चढ़ दौड़ेगी, घटियापन बढ़ेगा। उस आधार पर संकीर्ण स्वार्थपरता की आपाधापी भर बढ़ सकती है, सार्वजनिक उत्कर्ष की सुव्यवस्था तो बन ही नहीं सकती।
प्रश्न यह उभरता है कि उच्चस्तरीय व्यक्तित्व, महामानव स्तर की प्रामाणिक, परमार्थ परायण प्रतिभाओं का समुचित निर्माण क्यों नहीं हुआ ? क्यों नहीं हो रहा है ? इसका सहज उत्तर यही बन पड़ता है कि उसके लिए निर्माणकर्ता तत्परता के साथ संलग्न नहीं हुए। बनाए बिना भी कोई वस्तु क्या अपने आप बनती है ? बनाने का समुचित प्रयास नहीं हुआ तो न बनाने की शिकायत तो रहनी ही थी ?
विस्तार पर ध्यान नहीं दिया गया तो देश में अन्न संकट पैदा हो गया था। उसे दूर करने के लिए हरित क्रांति के रूप में व्यापक अभियान चलाया गया, तभी उसे दूर करने के लिए बड़े-बड़े बाँध से लेकर छोटे-छोटे ट्यूबवेलों तक के विकास पर शक्ति लगानी पड़ी।