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| १२|| शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता निराशा एवं दुःख देखा जाता है। इस घुड़दौड़ में आगे निकलने वालों को प्रमाण-पत्र तो मिलते हैं, पर निश्चित नहीं कि उनके आधार पर कोई अच्छी नौकरी मिल सकेगी या नहीं ? फेल होने वाले बच्चे फिर से पढ़ते हैं या निराश होकर बैठ जाते हैं, पर स्वावलंबन के आधार पर आजीविका उपार्जन के संबंध में इस समुदाय के सभी सदस्यों को अनिश्चितता ही घेरे रहती है।
__शिक्षा में स्वावलंबन के लिए उपयुक्त 'कला-कौशल का समावेश होने की चर्चा पहले ही की जा चुकी है। उनके लिए व्यापक प्रबंध करना जरूरी है। सुसंस्कारिता की दिशा में एक प्रयास यह हो सकता है कि पाठ्य-पुस्तकों में एक प्रकरण नीतिनिष्ठा को उभारने के लिए भी जुड़ा रहे। सामूहिकता, सहकारिता, समाजसेवा, शालीनता, सद्भावना जैसी सत्प्रवृत्तियों को अपनाने, उन्हें व्यावहारिक जीवन में उतारने की सीख भी दी जाती रहे। इस मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का समाधान सुझाया जाए और सद्गुणों के अभ्यास का कोई सुनिश्चित तरीका बताया जाए, पर वैसी कोई साँगोपांग व्यवस्था अभी बन नहीं पाई है। इस संदर्भ में कहा तो बहुत कुछ जाता रहा है उसकी आवश्यकता का समर्थन भी किया जाता है, पर यह सब उथला ही रह जाता है। अनिवार्य पाठ्यक्रम बनाने और उसे सभी कक्षाओं में लागू करने का कोई सरकारी प्रबंध अभी तक हो नहीं सका है।
एक डर यह बना रहता है कि नीतिनिष्ठा के पाठ्यक्रम को कहीं धर्म संप्रदाय का शिक्षण न कहा जाने लगे ? उसे सांप्रदायिकता का विष बीज फैलाना न मान लिया जाए ? वस्तुतः इस प्रकार भ्रमग्रस्त होने का कोई कारण नहीं है। धर्म निरपेक्ष राज्य में सांप्रदायिकता को प्रोत्साहन नहीं दिया जा सकता। उसके लिए मनाही है भी, पर नीतिनिष्ठा को भी उसी लपेट में ले लेना सर्वथा अनुचित है। हो सकता है कि सांप्रदायिक मान्यताओं में नीति का समर्थन न हो, पर इसी कारण नीतिनिष्ठा को संप्रदायवाद कहकर, उसकी उपेक्षा-अवमानना भी तो नहीं की जा सकती। नागरिक शास्त्र, समाज शास्त्र आदि निर्विवाद रूप से पढ़ाए जा सकते हैं, तो आदर्शवादिता