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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता || ११ | नव-युवकों को राष्ट्र की उदीयमान भवितव्यता मानकर, उन्हें शिक्षित बनाने के साथ-साथ सुसंस्कृत बनाने के लिए कुछ उठा न रखा जाए।
यह सब. कैसे हो सकता है ? इतने बड़े काम में हाथ कौन डाले ? उसे पूरा कर दिखाने का व्रत कौन धारण करे ? इसके उत्तर में एक ही केंद्र पर निगाह जा टिकती है, वह है शिक्षा तंत्र। इसमें सूत्र संचालक, अधिकारी, नीति-निर्माताओं का उच्चवर्ग तो प्रमुख है ही, क्योंकि उन्हीं के इशारे पर छात्रों को पढ़ाई की सारी सुविधाएँ, योजनाएँ मिलती हैं, परंतु इस प्रक्रिया का व्यवहारिक कार्यभार शिक्षक ही सँभालते हैं। आर्कीटैक्ट किसी इमारत का नक्शा भर बनाकर अपना काम पूरा करता है। उसकी नींव खोदने से लेकर, इमारत खड़ी करने और छत डालने तक की पूरी प्रक्रिया. राज-मजदूर, लुहार, बढ़ई आदि शिल्पी-श्रमजीवी ही मिलकर पूरी करते हैं। शिक्षा तंत्र के विशाल क्षेत्र में, अग्रिम मोर्चे पर लड़ने वाले सैनिकों की तरह, शिक्षक समुदाय की ही प्रधान भूमिका रहती है। श्रेय का दावेदार कोई भी क्यों न बने, पर यदि नई पीढ़ी का स्तर वास्तव में ही ऊँचा उठाना है तो उसमें पहली श्रेणी की भूमिका निभाने में अध्यापकों का श्रम और मनोयोग ही चमत्कारी सत्परिणाम प्रस्तुत करता दिखाई देगा। इस प्रकार उन्हें प्रकारांतर से नींव के पत्थर जैसी स्थिति में रहने वाले राष्ट्र निर्माता ही कहा जा सकता है। स्वतंत्रता के बाद जो राहत की साँस लेने का जन साधारण को अवसर मिला है, उसे प्रगतिशीलता की दिशा देने का कार्य अध्यापक ही कर सकते हैं। अध्यापकों में भी वे वंदनीय अभिनंदनीय हैं, जिन्हें उपाध्याय का आचार्य का श्रेय सम्मान मिल सके। ___सामान्य अध्यापक पाठ्यक्रम पूरा करने भर में अपनी जिम्मेदारी समेट लेते हैं। छात्र पाठ्य पुस्तकों की सहायता से अपने ज्ञान की अभिवृद्धि करते हैं। अध्यापक अपनी कक्षा में उस पढ़ाई को सुव्यवस्थित बनाने की विधि व्यवस्था बना देते हैं। ढर्रा इसी प्रकार चलता रहता है और परीक्षा देकर फेल-पास होने का क्रम भी चलता रहता है। पास होने वाले छात्रों में उत्साह और फेल होने वालों में