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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता] १३] का पक्षधर आचार शास्त्र क्यों नहीं पढ़ाया जा सकता ? जीवनी विद्या को महत्त्वहीन करके उपेक्षित कैसे किया जा सकता है ? उसे शिक्षण पद्धति का अविच्छिन्न अंग क्यों नहीं बनाया जा सकता ? आखिर संख्या में अधिक होना ही तो सब कुछ नहीं है, व्यक्तित्व की उत्कृष्टता का भी तो अपना मूल्य है। इस विषय से अपरिचित रहकर, दृष्टिकोण, चरित्र व्यवहार में उत्कृष्टता का समावेश भी तो नहीं किया जा सकता। इस अभाव के रहते, किसी से महानता अपनाने और समाज का अभिनंदनीय घटक बनने की आशा भी तो नहीं की जा सकती।
सरकारी पाठ्यक्रम में यदि नैतिक शिक्षा का, अविच्छिन्न आधार का समावेश नहीं है, तो भी उस आवश्यकता को कम से कम शिक्षक तो अनुभव करें और निजी 'तौर से उस संबंध में जो कुछ बन पड़ सकता है, उसे करने के लिए तत्परता बरतें, प्रयत्नशील रहें। अभिभावक की तरह अध्यापक की भी कुछ नैतिक जिम्मेदारियाँ हैं। जिस तरह अभिभावक बालकों के लिए रोटी-कपड़े का प्रबंध करके अपनी जिम्मेदारियों से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकते, उसी प्रकार अध्यापक भी कोर्स की पढ़ाई पढ़ाकर उन उत्तरदायित्वों से छुटकारा नहीं पा सकते, जो अनायास उनकी गुरु-गरिमा के बीच सघन रूप में जुड़ गए हैं।
निर्धारित पाठ्यक्रम पूरा करते समय वे बीच-बीच में ऐसी टिप्पणियाँ जोड़ते रह सकते हैं, जिनसे छात्रों को अतिरिक्त दिशा मिलती रहे। वे अपनी निर्धारित पढ़ाई तो दिलचस्पी के साथ पूरी करें ही, पर साथ ही यह भी उत्कंठा जग पड़े कि उन्हें संव्याप्त दुष्प्रवृत्तियों से बचना है, दुष्परिणाम भुगतने के लिए विवश करने वाले कुचक्र में नहीं फँसना है। अपने स्तर को क्रमशः इसी प्रकार विकसित करते जाना है, जिससे उनकी गणना प्रामाणिक, जिम्मेदार, प्रतिभावान लोगों में होने लगे। इसके लिए जिस प्रकार का मानव बनाया जाना आवश्यक है, उसे पाठ्यक्रम की विवेचना करते हुए भी हृदयगम कराया जा सकता है।