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________________ . ४५ प्रकार मिल जाने से न तो कृष्ण भगवान ही भगवदगीता में सहमत । हैं,और न महान वैष्णव आचार्य लोग ही जो कि गुरु परम्परा से आये हैं। चैतन्य महाप्रभु ने शिक्षाष्टकम में इस विषय पर इस प्रकार लिखा न धनं न जनं न सन्दरी कवितां वा जगदीश कामये। मम जन्मनी जन्मनिश्वरे भवताभक्तिरहैतुकी त्वयि।। "हे सर्वशक्तिमान भगवान , मुझे धन एकत्रित करने की इच्छा नहीं है,न सुन्दर नवयुवतियो के साथ आनन्द लेने की ही इच्छा है,और न मुझे किसी शिष्य की ही इच्छा है। मैं केवल यही चाहता हूँ कि आप मुझे अपनी भक्ति और सेवा में हरेक जन्म मे लगाये रखिये।"(शिक्षाष्टक-४) यहाँ चैतन्य महाप्रभु 'हरेक' जन्म शब्द का उपयोग करते हैं। जब हरेक जन्म है तो मुक्ति नहीं है। मुक्ति के बाद या तो कोई अलौकिक जगत में जाता है या परम सत्य में मिल जाता है। किसी भी प्रकार इस संसार में फिर जन्म लेने का प्रश्न नहीं है। परन्तु चैतन्य महाप्रभु इस बात की चिन्ता नहीं करते हैं कि मुक्ति मिले या नहीं। उनका सम्बन्ध केवल कृष्णभावना में व्यस्त रहने से है और भगवान की सेवा करने से है। भक्त इसकी चिन्ता नहीं करते हैं कि वे कहाँ हैं और न इसकी ही चिन्ता करते हैं कि उनका जन्म जानवरों के समाज मे हो, मनुष्य के समाज में हो, देवताओं के समाज में हो या कहीं और हो, वे भगवान से प्रार्थना करते हैं कि वे उन्हें न भूलें और सदैव उनकी भक्ति में लगे रहने योग्य रहें। ये शुद्ध भक्ति के लक्षण हैं। यद्यपि भक्त कहीं भी होये वे इस सांसारिक शरीर के होते हुए भी वैकुण्ठ में रहते हैं। परन्तु वे अपनी सदगति के लिए या आराम के लिए भगवान से कुछ नही माँगते हैं।
SR No.032172
Book TitleJanma Aur Mrutyu Se Pare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA C Bhaktivedant
PublisherBhaktivedant Book Trust
Publication Year1977
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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