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परम आनन्द लेने वाले राम या कृष्ण के सम्बन्ध से है। कृष्ण भगवान सत्य में आनन्द लेने वाले हैं और भगवद् गीता इस प्रकार कहती है: भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति । (भ.गी. ५:२६ )
" साधु लोग मुझे हर यज्ञ और तपस्या का अन्तिम उद्देश्य समझ कर, सभी लोकों और देवताओं का ईश्वर समझ कर, हर जीव की भलाई चाहने वाला और लाभ देने वाला जानकर इन सांसारिक दुःखोंके जालसे शांति पाते हैं।"
'भोग' के माने आनन्द से है और हमारा आनन्द अपनी स्थिति आनन्द देने वाला जानकर है। वास्तविक आनन्द लेने वाले भगवान हैं और वे हमसे आनन्द लेते हैं । इस संसार में उदाहरण पति और पत्नी के मध्य सम्बन्ध में पाया जा सकता है। पति आनन्द लेने वाला है यानी पुरुष है और पत्नी आनन्द देने वाली है यानी प्रकृति है । प्री धातु का मतलब है स्त्री-पुरुष । आत्मा भोक्ता है, और प्रकृति या कुदरत् भोग का विषय है । फिर भी आनन्द पति और पत्नी दोनों ही लेते हैं । जब वास्तव में आनन्द होता है तो यह भिन्नता नहीं रहती कि पति अधिक आनन्द ले रहा है और पत्नी कम आनन्द ले रही है । परन्तु जब आनन्द आता है तो कोई विभाजन नहीं रहता है। गौर से देखने से कोई जीव आनन्द लेने वाला नहीं है ।
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भगवान विस्तृत हुए और हम उनके विस्तार हैं । भगवान् एक हैं, दो नहीं हैं परन्तु वे आनन्द लेने के लिए अनेक रूपों में विस्तृत होते हैं । . हमें अनुभव है कि कमरें में अकेले बैठे, बिना किसी से बातें किये कुछ भी. - आनन्द नहीं मिलता। किसी प्रकार यदि पाँच व्यक्ति कमरे में उपस्थित हों तो हमारा आनन्द बढ़ जाता है और यदि हम अनेक व्यक्तियों के समक्ष कृष्ण भगवान् की चर्चा करें तो हमारे आनन्द की सीमा ही नहीं रहती है। आनन्द के माने विविधता से है । भगवान्