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________________ अपने आनन्द के लिए अनेक बने हैं और हमारी स्थिति उन्हें आनन्द देने वाली है। यही हमारा स्वरूप है और यही इस सृष्टि का उद्देश्य है। आनन्द लेने वाला और आनन्द देने वाले दोनों ही चेतनामय हैं, परन्तु आनन्द देने वाले की चेतना आनन्द लेने वाले की चेतना से गौण है। यद्यपि कृष्ण भगवान् आनन्द लेने वाले हैं और हम आनन्द देने वाले हैं, परन्तु आनन्द का अनुभव दोनों में बराबर ही है। हमारे आनन्द की पूर्णता भगवान् के आनन्द में सहयोग देने में है। शारीरिक स्तर पर अलग आनन्द लेने की कोई सम्भावना नहीं है। सम्पूर्ण भगवद् गीता में शारीरिक स्तर पर सांसारिक आनन्द निरुत्साहित किया गया है। मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।भ.गी २:१४।। "ओ कुन्ती के पुत्र! परिवर्तित होने वाली गर्मी और ठण्डक, सुख और दुःख का आगमन और उनका कुछ समय के बाद चला जाना शीत और ग्रीष्म ऋतुओं के आने जाने की भाँति है। जो इन्द्रियों के स्पर्श के कारण उत्पन्न होते हैं। हे भरत के वंशज ! हर एक को बिना अशान्त हुए इसे सहना करना चाहिए।" - इस प्रकृति के तीन गुणों की क्रिया और परिक्रिया से यह भौतिक शरीर उत्पन्न हुआ है और यह विनाश होने के लिए है। अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः । अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत । (भ.गी: २:१८) - "अविनाशी तथा बिना कोई नाप वाले सनातन जीव के भौतिक शरीर का ही नाश होता है। इसलिए ओ भरत के वंशज, लड़ो।" कृष्ण भगवान् हमें शारीरिक स्तर से ऊपर चढ़कर वास्तविक परम जीवन में आने की उत्तेजना देते हैं।
SR No.032172
Book TitleJanma Aur Mrutyu Se Pare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA C Bhaktivedant
PublisherBhaktivedant Book Trust
Publication Year1977
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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