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त्यक्ला तद्भावन तस्मादेवमेवाहमास्थितः! -और सब छोड़ कर अपने में बैठ गया हूं।
'जिसने साधनों से क्रिया-रहित स्वरूप अर्जित किया है, वह पुरुष कृतकृत्य है। और जो ऐसा ही, अर्थात स्वभाव से स्वभाव वाला है, वह तो कृतकृत्य है ही, इसमें कहना ही क्या!'
इस सूत्र का अर्थ है : जिसने साधनों से क्रिया-रहित स्वरूप अर्जित किया है, जिसने तप से, जप से, ध्यान से, मनन-चिंतन से, निदिध्यासन से स्वभाव को पाया-वह पुरुष तो कृतकृत्य है ही। ठीक है। लेकिन जिसने ऐसा कुछ भी नहीं किया, और जो ऐसा ही बिना कुछ किए, स्वभाव वाला हूं, ऐसा जान कर शांत हो गया है, उसकी तो बात ही क्या कहनी! उसकी कृतकृत्यता तो अवक्तव्य है। तो जिसने कुछ कोशिश करके परमात्मा को पा लिया, वह कोई चमत्कार नहीं है। जिसने बिना कुछ किए, बैठे-बैठे, बिना हिले-इले, सिर्फ बोध-मात्र से परमात्मा को उपलब्ध कर लिया, उसकी कृतकृत्यता तो कही नहीं जा सकती; उसे तो शब्दों में बांधने का कोई उपाय नहीं है।
एवमेव कृतं येन स कृतार्थो भवेदसौ। -ही, जिसने साधन से पाया, ठीक है, धन्यभागी!
एवमेव स्वभावो यः स कृतार्थो भवेदसौ। -लेकिन कैसे करें उसका गुण-वर्णन, कैसे करें उसकी प्रशंसा, जिसने बिना कुछ किए पा लिया! जनक कहते हैं : मैंने तो बिना कुछ किए पा लिया। न कहीं गया, न कहीं आया; अपनी ही जगह बैठ कर पा लिया है।
इन सूत्रों पर खूब मनन करना बार-बार; जैसे कोई जुगाली करता है! फिर-फिर, क्योंकि इनमें बहुत रस है। जितना तुम चबाओगे, उतना ही अमृत झरेगा। ये कुछ सूत्र ऐसे नहीं हैं कि जैसे उपन्यास, एक दफे पढ़ लिया, समझ गए, बात खतम हो गई, फिर कचरे में फेंका। यह कोई एक बार पढ़ लेनी वाली बात नहीं है-यह तो सतत पाठ की बात है। यह तो किसी शुभमुहूर्त में, किसी शांत क्षण में, किसी आनंद की अहो -दशा में, तुम इनका अर्थ पकड़ पाओगे। यह तो रोज-रोज, घड़ी भर बैठ कर, इन परम सूत्रों को फिर से पढ़ लेने की जरूरत है। पाठ का यही अर्थ है। पढ़ना और पाठ करने में यही फर्क है। पढ़ने का मतलब एक दफे पढ़ लिया, बात खतम हो गई।
पश्चिम में पाठ जैसी कोई चीज नहीं है। जब वे सुनते हैं पाठ, तो उनको समझ में नहीं आता कि पाठ क्या करना! उनको भरोसा नहीं आता कि एक ही शास्त्र को रोज-रोज लोग जीवन भर पढ़ते हैं। यह बात क्या हुई? जब एक दफा पढ़ लिया, पढ़ लिया।
पश्चिम में तो किताब ही पेपर-बैक छापते हैं अब वे। एक दफे पढ़ लिया और फेंक दी, क्योंकि उसको रखने की क्या जरूरत! सस्ती से सस्ती छाप ली, लोग पढ़ लेते हैं और ट्रेन में छोड़ जाते हैं। पढ़ ली और बस में छोड दी। अब उसको करेंगे क्या?
लेकिन ये किताबें, किताबें नहीं है ये जीवन के शास्त्र हैं। शास्त्र और किताब का यही फर्क है। किताब एक दफा पढ़ लेने से व्यर्थ हो जाती है। शास्त्र अनेक बार पढ़ने से भी व्यर्थ नहीं होता।