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अचिंत्यं चित्यमानोऽपि चितारूप भजत्यसौ ।
हद हो गई - जनक कहते हैं-लोग अचिंत्य का चिंतन कर रहे हैं! तो, मैंने तो सब चिंतन के साथ हाथ हटा लिए। अब तो मैं खाली हो गया हूं। अब तो मैं भगवान का भी चिंतन नहीं करता, क्योंकि भगवान का चिंतन हो कैसे सकता है?