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ही जानता था कि यह मूढ़ मुझे क्या समझायेगा! मेरे पैर धो रहा है! यह खुद ही मुझसे सीखने को उत्सुक हो रहा है। सुबह यही जिज्ञासा करेगा । ' तो वह ज्ञान से सोया । वह थोड़ी-सी चिंता थी मन में, वह भी गयी कि किसी से कुछ सीखना पड़ेगा। सिखाने का मजा अहंकार को बहुत है। सीखने के लिए अहंकार बिलकुल राजी नहीं है। गुरु होने का मौका मिले तो अहंकार तत्क्षण होने को तैयार है। शिष्य बनने में बड़ी अड़चन है, बड़ी कठिनाई है।
सुबह हुई । जनक ने उसे द्वार पर आ कर जगाया और कहा कि चलें स्नान को पीछे बहती है नदी, वहा हम स्नान कर लें।
वे दोनों स्नान को गये। त्यागी के पास तो सिवाय लंगोटी के कुछ भी न था। दो लंगोटिया थीं। तो एक लंगोटी तो वह किनारे पर रख गया और एक लंगोटी वह पहने था, तो नदी में गया। जनक भी उसके साथ-साथ गये। जब वे दोनों नदी में स्नान कर रहे थे, तभी वह त्यागी चिल्लाया. अरे जनक, तेरे महल में आग लगी! सारा महल धू-धू कर जल रहा है।
जनक ने कहा. मेरा महल क्या? महल में आग लगी है, इतना ही कहो। अपना क्या! न ले कर आये थे, न ले कर जायेंगे ।
उसने कहा. तू जान, तेरा महल, मेरी लंगोटी...! वह भागा, क्योंकि वह महल की दीवाल के पास ही लंगोटी रखी है।
बाद में जनक ने उसे कहा : सोच, यह महल धू धू कर जल रहा है और मैं कहता हूं कि मैं बिना महल के आया था, बिना महल के जाऊंगा। इसलिए अब महल रहे कि जले, क्या फर्क पड़ता है ? देखता हूं! लेकिन तू अपनी छोटी-सी लंगोटी का भी द्रष्टा न हो सका। तो सवाल यह नहीं है कितनी बड़ी संपदा तुम्हारे पास है, करोड़ की है या एक कौड़ी की है - सवाल यह है कि उस संपदा के प्रति तुम्हारा भाव क्या है, भोक्ता का है कि साक्षी का है?
यह आग, कहते हैं, जनक ने लगवायी थी । यह उपदेश था जनक का उस नासमझ त्यागी को । 'जिस महात्मा ने इस संपूर्ण जगत को आत्मा की तरह जान लिया है, उस वर्तमान ज्ञानी को अपनी स्फुरणा के अनसार कार्य करने से कौन रोक सकता है?"
कौन रोकेगा? कोई बचा नहीं ! जनक यह कह रहे हैं कि मैं तो अब हूं नहीं| परीक्षा गुरुदेव आप किसकी लेते हैं? जिसकी परीक्षा ली जा सकती थी, वह जा चुका। आप मुझे यह भी नहीं कह सकते कि तू ऐसा क्यों करता है, वैसा क्यों नहीं करता? क्योंकि अब नियंत्रण कौन करे ? मैं तो रहा नहीं- अ तो जो होता है, होता है।
यह परम अवस्था की बात है।
तुमने देखा, छोटे बच्चों को पाप नहीं लगता, अदालत में जुर्म नहीं लगता, अपराध नहीं लगता; क्योंकि उन्हें बोध नहीं है । पागलों को भी अपराध नहीं लगता, क्योंकि उन्हें बोध नहीं है। बुद्धों को भी अपराध नहीं लगता, क्योंकि वे बोध के पार चले गये। उलझन बीच में खड़े आदमी की है। न तो नीचे पाप है, न ऊपर पाप है। जानवरों को तो तुम पापी नहीं कह सकते, क्योंकि पापी होने के लिए