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जनक के इस सूत्र को बहुत गहराई में समझना। जनक का यही उत्तर है। जनक कह रहे हैं अब कौन रोके? जब मैं एक हो गया तो अब कौन रोके? जो हो रहा है, हो रहा है। जो होगा, होगा। अब रोकने वाला न रहा। अब तो 'यदृच्छया'। अब तो भाग्य! अब तो विधि। अब तो परमात्मा या जो भी नाम दो। अब तो 'वह' जो कराये, होगा। अब तो अपने किये कुछ न होगा। हम तो रहे नहीं। हम तो गये। तब तो जो होगा, उसे देखेंगे। महल में रखवायेगा तो महल में रहेंगे। महल छीन लेगा, तो महल को छीनता हुआ देखेंगे।
ऐसी जनक के जीवन में कथा है कि एक गुरु ने अपने शिष्य को बहुत वर्षों तक मेहनत करने के बाद भी जब देखा कि कोई गति नहीं हो रही है समाधि में, तो कहा कि तू जनक के पास चला जा। अब जिसकी गति समाधि में नहीं हो रही थी, जाहिर है कि बड़ा अहंकारी रहा होगा। उसने कहा : मैं, और जनक के पास जाऊं? और जनक मुझे क्या सिखायेंगे? खुद ही तो पहले सीखें, पहले त्याग तो करें! महलों में रहते हैं; राग-रंग में जीते हैं-मुझे क्या खाक सिखायेंगे? मगर आप कहते हैं तो चला जाता हूं। गुरु- आज्ञा है, इसलिए चला जाता हूं।
गया तो, लेकिन गया नहीं। मजबूरी जैसा गया। विवशता में गया। माननी है आज्ञा, सो पूरी कर देनी है। गुरु ने कहा तो जाओ। गया, लेकिन अकड़ थी।
जब पहुंचा जनक के दरबार में तो वहा तो राग रंग चल रहा था, संगीत उठ रहा था। नर्तकियां नाच रही थीं। शराब के प्याले ढाले जा रहे थे, दरबारी मस्त हो रहे थे। बीच में बैठे थे जनक। वह हंसा। अपने मन में उसने कहा कि मैं पहले ही जानता था। अभी इसको खुद ही बोध नहीं है। अब यह बैठा यहां क्या कर रहा है? और अगर यह ज्ञानी है, तो फिर अज्ञानी कौन है? और अगर इससे मुझे सीखना है. हालत तो उलटी मालूम होती है : इसको तो मैं ही सिखा सकता हूं कुछ।
जनक उठा। ब्राह्मण देवता आये थे तो उन्होंने उसके पैर पड़े और कहा कि आप विश्राम करें; सुबह विश्राम के बाद अपनी जिज्ञासा प्रगट करना।
उसने कहा, खाक जिज्ञासा! तुमने अपने को समझा क्या है? कैसी जिज्ञासा? तुमसे जिज्ञासा करूंगा?
उसने कहा कि नहीं, आपकी मर्जी, करना हो करें न करें; लेकिन अभी तो विश्राम कर लें, भोजन करें।
भोजन और विश्राम की व्यवस्था करवा दी। जनक को दिखायी तो पड़ गया सीधा-सीधा कि इस आदमी की अड़चन क्या है इसके गुरु ने क्यों इसे भेजा है? यह भोग से तो छूट गया था, यह त्यागी हो गया था। और भोगी को तो ध्यान में ले जाना कठिन है ही, त्यागी को महा कठिन है। ध्यान में ले जाने में जो अहंकार बाधा है, वह त्यागी के पास तो और भी मजबूत हो जाता है-ठीक इस्पात का हो जाता है। त्यागी का अहंकार तो स्टैलिन हो जाता है। स्टैलिन का नाम स्टील से बना है। तो वह तो बिलकुल स्टैलिन हो जाता है। उसको तो झुकाना मुश्किल
देख तो लिया जनक ने। पैर धोये त्यागी के। त्यागी तो और भी अकड़ा। उसने कहा, 'मैं पहले