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तब अपने से बहेगा। और तब कोई भी बाधा न डाल सकेगा। लेकिन उसके पहले तो बाधा डल सकती है, उसके पहले तो अड़चन आ सकती है।
तो अभी जो हो रहा है उसे सम्हालो। तुम प्रतीक्षा करो। जब परमात्मा पाएगा कि अब घड़ी आ गई कि तुमसे दूसरों में भी बहा जा सकता है, तब अपने-आप मार्ग खोज लेगा। न तो तुम्हें मेरे निर्देश की जरूरत है, न मार्ग-दर्शन की। परमात्मा तुमसे मार्ग खोज लेगा, जब पाएगा कि तुम तैयार हो गए। जब फल पक जाते हैं तो गिर जाते हैं। जब बादल जल से भर जाते हैं तो बरस जाते हैं। उसके पहले मार्ग-दर्शन की जरूरत है।
इसलिए मैं मार्ग-दर्शन देता भी नहीं। मैं कहता हूं कि उसी के हाथ में छोड़ो। तुम भरते जाओ अपने अंतस्तल को भरते जाओ, भरते जाओ और छिपाए रखो! अपनी तरफ से चेष्टा मत करना बांटने की। आकांक्षा पैदा होगी, मगर उस आकांक्षा में पड़ना मत। और जिस दिन बंटने लगे, उस दिन दूसरा खतरा पैदा होता है। फिर रोकने की चेष्टा मत करना। जब अपने से बंटने लगे, तो बंटने देना। नहीं तो धीरे- धीरे, सम्हाले-सम्हाले, रत्न को गांठ में गठियाये-गठियाये गांठ पड़ने की आदत मत बांध लेना कि अब कैसे खोलें! नहीं, जब बटन। चाहे तो बंटने देना।
तुम प्रभु की मर्जी से जीयो! उससे कहो. जो तेरी मर्जी। तेरी मर्जी पूरी हो! तू चाहता हो हम छुपे रहें तो हम छुपे रहेंगे! तू चाहता हो हमारी किसी को खबर न हो तो हम किसी को खबर न होने देंगे! तू चाहता हो हम ऐसे ही तेरे को भीतर सम्हाले सम्हाले जीएं और विदा हो जाएं, तो हम ऐसे ही विदा हो जाएंगे! तू चाहता हो कि गाएं, तू चाहता हो कि घरों के छप्पर पर चढ़े और चिल्लाएं और सोयों को जगाए, तो हम राजी हैं।
मगर अपनी तरफ से तुम कुछ करना ही मत। तुम्हारी तरफ से जो होता है सब गलत ही होता है। तुम बीच से हट जाओ-तुम उसे मार्ग दो!
चौथा प्रश्न :
आप कभी कहते हैं कि व्यक्ति नहीं, समष्टि ही है; एक पत्ता भी उसकी मर्जी के बिना नहीं डोलता। और कभी कहते हैं कि व्यक्ति की स्वतंत्रता इतनी पूरी है कि परमात्मा के लिए वहां जगह कहां? ऐसी ध्रुवीय विपरीतताओं के बीच हम बड़ी उलझन में पड़ जाते हैं। सत्य तो एक ही होना चाहिए। कृपापूर्वक हमें समझाएं।
सत्य तो एक ही है। लेकिन सत्य के दो पहलू हैं-एक इस किनारे से देखा गया और एक उस किनारे से देखा गया। सत्य के दो पहलू हैं-एक मूर्छा में मिली हुई झलक और एक परम जागृति