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तो ज्यादा दिन यह अहंकार टिकेगा नहीं, यह तो केर-बेर का संग हो जाएगा। इसके तो पत्ते अपने से फट जाएंगे। यह तो अपने से नष्ट हो जाएगा।
तुम इस पर विचार भी मत दो, इसका ध्यान भी मत करो, इसकी चिंता भी न लो। तुम तो डूबो सत्संग में, समर्पण में। यह धीरे धीरे अपने से विदा हो जाएगा। इसे विदा करने की चेष्टा भी मत करना। क्योंकि इस पर ध्यान देना ही खतरनाक है। इसकी उपेक्षा ही इससे मुक्ति का उपाय है। रहने दो, जब तक है ठीक है। तुम इसकी फिक्र मत करो। तुम तो अपनी सारी ऊर्जा समर्पण में डालो। जैसे कोई आदमी सीढ़ी चढ़ता है, तो तुमने देखा, एक पैर पुरानी सीढ़ी पर होता है, एक पैर नई सीढ़ी पर रखता है! फिर जब नई सीढ़ी पर पैर जम जाता है, तो पिछले पैर को उठा लेता है, फिर नए पैर को आगे की सीढ़ी पर रखता है। लेकिन ऐसी बहुत घड़ियां होती हैं जब एक पैर पुरानी सीढ़ी पर होता है और एक नई सीढ़ी पर होता है-तभी तो गति होती है।
अहंकार तुम्हारी अब तक की सीढ़ी है; समर्पण तुम्हारा पैर है-नए की तलाश में। जब तक नए पर पैर न पड़ जाए, तब तक पुराने से पैर हटाया भी नहीं जा सकता हटाना भी मत, नहीं तो मुंह के बल गिरोगे। जब पैर जम जाए नई सोढी पर, तो फिर उठा लेना, फिर कोई डर नहीं है। एक बार पैर को समर्पण में जम जाने दो, अहंकार से उठ जाने में ज्यादा अडूचन न आएगी।
लेकिन जल्दी की भी कोई जरूरत नहीं है। चीजों को उनके स्वाभाविक ढंग से धैर्यपूर्वक होने दो। इससे चिंता मत लेना कि मुझमें अहंकार है तो कैसे समर्पण होगा?
कमरे में अंधेरा होता है तो तुम यह पूछते हो कि कमरे में इतना अंधेरा है और दिन दो दिन का नहीं, जन्मों-जन्मों का है, न मालूम कब से है, यहां दीया जलाएंगे छोटा-सा जलेगा? इतने अंधकार में दीया जलेगा? ऐसा तुम पूछते नहीं, क्योंकि तुम जानते हो अहंकार या अंधकार कितना ही सदियों पुराना हो, उसका कोई अस्तित्व नहीं है। दीया जले-बोध का, समर्पण का, प्रेम का तो जैसे अंधकार दीये के जलने पर विसर्जित हो जाता है, ना-नुच भी नहीं करता, यह भी नहीं कहता खड़े हो कर कि यह क्या अन्याय हो रहा है; मैं इस कमरे में हजारों साल से था और आज तुम अचानक आ गए मेहमान की तरह और मुझे निकलना पड़ रहा है, मैं मेजबान हूं तुम मेहमान हो दीया अभी जला है, मैं कब. से यहां मौजूद हूं नहीं, अंधकार शिकायत भी नहीं करता, कर ही नहीं सकता। अंधकार का कोई बल थोड़े ही है! वह तो था ही इसलिए कि दीया नहीं था। अब दीया आ गया, अंधकार गया।
तो अगर तुम्हारे भीतर समर्पण का भाव पैदा हो गया है तो घबड़ाओ मत। अहंकार कितना ही प्राचीन हो, इस समर्पण की नई-सी फूटती कोंपल के सामने भी टिक न सकेगा। यह छोटी-सी जो ज्योति तुम्हारे भीतर समर्पण की पैदा हुई है यह पर्याप्त है। यह सदियों पुराने, जन्मों पुराने अहंकार को जला कर राख कर देगी। इसका बल बड़ा है। इसका बल तुम्हें पता नहीं है, इसलिए चिंता उठती है। और इस चिंता में तुम कहीं भूल मत कर बैठना, तुम इस चिंता में कहीं अहंकार के संबंध में बहुत विचार मत करने लगना कि कैसे इसे छोड़े, कैसे इसे हटाए! इस चिंता में वह जो ऊर्जा दीये को जलाने में लगनी चाहिए थी, वह खंडित हो जाएगी।