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तुम तो समग्र भाव से, सब चिंताएं छोड़कर समर्पण में अपनी ऊर्जा को उंडेले चले जाओ। वही तो ऊर्जा है, जब सारी की सारी समर्पण में समाविष्ट हो जाएगी तो अहंकार के लिए कुछ भी न बचेगा। अहंकार अपने से चला जाता है।
तीसरा प्रश्न :
मेरे जीवन के कोरे कागज पर आपने क्या लिख दिया कि मेरा जीवन ही बदल गया? जिस प्रेम और आनंद की तलाश मुझे जन्मों से थी, वह प्रेम और आनंद मुझे अयाचित गुरु-प्रसाद के रूप में मिल गया। मैं तो इसका पात्र भी नहीं था। प्रभु, जो संपदा आपने मुझे दी है, उसको मैं बांटना चाहता हूं। कृपा कर निर्देश और आशीष दें।
पहली तो बात, तुम्हारे जीवन के कोरे कागज पर मैंने कुछ लिखा नहीं। तुम्हारे जीवन का कागज कोरा नहीं था, उसे कोरा किया। इस भ्रांति को पालना मत, अन्यथा ज्ञान की जगह जानकारी में जकड़ जाओगे।
मैंने तुम्हारे जीवन के कागज पर कुछ लिखा नहीं तुमने लिख लिया हो, तो मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं। मेरी तो सारी चेष्टा तुम्हारे जीवन के कागज पर जो-जो तुमने लिख रखा है, उसको पोंछ डालने की है। मैं तुम्हारी सारी जानकारी छीन लेना चाहता हूं। मैं तुम्हें निपट निर्वेद की दशा में छोड़ देना चाहता हूं। निर्वेद ही निर्वाण है। और वही हुआ भी है। लेकिन तुम्ही पुरानी आदत देखने और सोचने की गलत व्याख्या किए चली जाती है। वही हुआ भी है।
तुम कहते हो : 'मेरे जीवन के कोरे कागज पर आपने क्या लिख दिया कि मेरा जीवन ही बदल गया?
मैंने कुछ भी नहीं लिखा है क्योंकि लिखने से कभी किसी का जीवन बदला नहीं। लिखने से तो जो लिखा था, उसमें ही और थोड़ा जुड़ जाता है। सब लिखा हुआ फुटनोट सिद्ध होता है। तुम्हारी किताब बहुत पुरानी है। तुम बड़ा शास्त्र लिए बैठे हो बड़ी बही-खाता! इसमें मैं कुछ लिखूगा तो वह भी एक फुटनोट बनेगा; इससे ज्यादा कुछ होने वाला नहीं है। तुम्हारा लिखा हुआ तो तुम्हारा पूरा अतीत है। इसमें मैं लिखूगा भी तो वह खो जाएगा। नहीं, लिखने का मैं प्रयास भी नहीं कर रहा हूं। शिक्षक और गुरु में यही फर्क है। शिक्षक लिखता है; गुरु मिटाता है। शिक्षक सिखाता है, गुरु, जो तुम सीख चुके हो, उससे तुम्हें मुक्त करता है। शिक्षक ज्ञान देता है गुरु ज्ञान के ऊपर उठने की कला