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'निश्चित जान कर' का क्या अर्थ है? सुन कर नहीं किसी और के जानने से उधार ले कर नहीं-ऐसा जीवन का अवलोकन करके। ऐसा जीवन को देख कर कि द्वंद्व यहां रुक कैसे सकता है? यहां विचार समाप्त कैसे हो सकते हैं? सागर की सतह पर तो चलती ही रहेंगी तरंगें। हवा के इतने झकोरे हैं, सूरज निकलेगा, बादल आएंगे, हवा चलेगी, तूफान उठेंगे - सतह पर तो सब चलता ही रहेगा। इतना ही हो सकता है कि तू सतह पर मत रह, तू सरक जरा, सरक कर अपने केंद्र पर आ जा।
प्रत्येक के भीतर एक ऐसी जगह है जहां कोई तरंग नहीं पहुंचती । तुम तरंग को रोकने की चेष्टा मत करो; तुम तो वहां सरक जाओ जहां तरंग नहीं पहुंचती । बाहर तुम बैठे हो सुबह है, सर्दी के दिन हैं, धूप सुहावनी लगती, मीठी लगती; फिर थोड़ी देर में सूरज ज्यादा गर्म हो आया, ऊपर आ गया, ऊपर उठने लगा, पसीना-पसीना होने लगे- अब तुम क्या करते हो? क्या तुम सूरज के ऊपर पानी छिड़कते हो कि चलो ठंडा कर दो सूरज को थोड़ा ? तुम चुपचाप सरक जाते अपने घर की छाया में, तुम हट आते छप्पर के नीचे ।
अब कोई आदमी ले कर हांज और सूरज को ठंडा करने की कोशिश करने लगे, तो उसको तुम पागल कहोगे। तुम कहोगे. 'अरे पागल ! सूरज को कौन कब शांत कर पाया !' यही अष्टावक्र कह रहे हैं. जब सूरज बहुत गर्म हो जाए तो चले जाना भूमिगत कमरों में जहां कोई सूरज की किरण न पहुंचती हो । सरकते जाना भीतर !
प्रत्येक के भीतर एक ऐसी जगह है जहां कोई तरंग नहीं पहुंचती वही तुम्हारा केंद्र है वही तुम्हारा स्वरूप है। उस गहराई में ही तुम्हारा वास्तविक 'होना' है।
'इस प्रकार निश्चित जान कर एवं ज्ञात्वेह - ऐसा जान कर...। '
मगर यह मैं कहूं, इससे न होगा। अष्टावक्र कहें, इससे भी न होगा। वेद- कुरान कहते रहे हैं, कुछ भी नहीं होता। जब तक तुम न जानोगे जब तक यह तुम्हारी प्रतीति न बनेगी .. । ज्ञान मुफ्त नहीं मिलता और उधार भी नहीं मिलता - जीवन के कड़वे - मीठे अनुभव से मिलता है; जीवन जी कर मिलता है; जीवन को जीने में जो पीड़ा है, तप है, उस सबको झेल कर मिलता है। ऐसा निश्चित जान कर आदमी इस संसार में उदासीन हो जाता है । '
'उदासीन' शब्द बड़ा प्यारा है। आसीन का मतलब तो तुम समझते ही हो. बैठ जाना; आसन । उदासीन का अर्थ है अपने में बैठ जाना, अपनी गहराई में बैठ जाना; ऐसे सरक जाना अपने भीतर कि जहां बाहर की कोई तरंग न पहुंचती हो।
हैरिगेल ने बड़ी मीठी घटना लिखी है अपने झेन गुरु के बाबत । हैरिगेल जापान में था और तीन वर्षों तक धनुर्विद्या सीखता था एक झेन गुरु से । धनुर्विद्या भी ध्यान को सिखाने के लिए एक माध्यम है। तीन वर्ष पूरे हो गए थे और हैरिगेल उत्तीर्ण भी हो गया था - बामुश्किल उत्तीर्ण हो पाया। क्योंकि पाश्चात्य बुद्धि तकनीक को तो समझ लेती है, टेक्योलॉजिकल है, लेकिन उससे गहरी किसी बात को समझने में उसे बड़ी अड़चन होती है।
वह झेन गुरु कहता था तुम चलाओ तो तीर, लेकिन ऐसे चलाओ जैसे तुमने नहीं चलाया।