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अब यह बड़ी मुश्किल बात है । हैरिगेल निष्णात धनुर्विद था। सौ प्रतिशत उसके निशाने ठीक बैठते थे। लेकिन वह गुरु कहता : नहीं, अभी इसमें झेन नहीं है; अभी इसमें ध्यान नहीं है।
हैरिगेल कहता मेरे निशाने बिलकुल ठीक पड़ते हैं, अब और क्या चाहिए?
यह पाश्चात्य तर्क है कि जब निशाने सब ठीक लग रहे हैं, सौ प्रतिशत ठीक लग रहे हैं, तो अब और क्या इसमें भूल-चूक है? लेकिन झेन गुरु कहता. हमें तुम्हारा निशाना ठीक लगता है कि नहीं, इससे सवाल नहीं तुम ठीक हो या नहीं, इससे सवाल है। निशाना चूके तो भी चलेगा। निशाने की फिक्र किसको है? तुम न चूको ।
बात बड़ी कठिन थी। वह कहता. तुम ऐसे तीर चलाओ कि चलाने वाले तुम न रहो, कर्ता तुम न रहो, तुम सिर्फ साक्षी । चलाने दो परमात्मा को चलाने दो विश्व की ऊर्जा को, मगर तुम न चलाओ। अब यह बड़ी कठिन बात है। हैरिगेल कहेगा कि मैं न चलाऊ तो मैं फिर तीर को प्रत्यंचा पर रखूं ही क्यों? अब जो रखूंगा तो मैं ही रखूंगा । जब खींका प्रत्यंचा को तो मैं ही खींका, कौन बैठा है खींचने वाला? और जब तीर का निशाना लगाऊंगा तो मैं ही लगाऊंगा, कौन बैठा है देखने वाला और? तीन वर्ष बीत गए और गुरु ने उससे कहा कि अब बहुत हो गया अब तुम्हारी समझ में न आएगा। यह बात नहीं होने वाली, तुम वापिस लौट जाओ।
तो आखिरी दिन वह छोड़ दिया. उसने खयाल किया, अपने से होने वाला नहीं है या यह कुछ पागलपन का मामला है। वह गुरु से विदा लेने गया है। गुरु दूसरे शिष्यों को सिखा रहा है। तीन वर्ष उसने कई बार गुरु को तीर चलाते देखा, लेकिन यह बात दिखाई न पड़ी थी। नहीं दिखाई पड़ी थी, क्योंकि खुद की चाह से भरा था कि कैसे सीख लूं? कैसे सीख लूं? बड़ा भीतर तनाव था। आज सीखने की बात तो खत्म हो गई थी। वह विदा होने को आया है- आखिरी नमस्कार करने। कुछ भी हो इस गुरु ने तीन वर्ष उसके साथ मेहनत तो की है। तो वह बैठा है एक बेंच पर गुरु दूसरे शिष्यों को सिखा रहा है। वह खाली हो जाए, तो हैरिगेल उससे क्षमा मांग ले और विदा ले ले। खाली बैठे-बैठे उसको पहली दफा दिखाई पड़ा कि अरे, गुरु उठाता है प्रत्यंचा, लेकिन जैसे उसने नहीं उठाई। कोई तनाव उठाने में रखता है तीर, लेकिन जैसे उदासीन । चढ़ाता है हाथ खींचता है हाथ, लेकिन जैसे प्रयोजन-शून्य; सूना-सूना; भीतर कोई चाहत नहीं है कि ऐसा हो, जैसे कोई करवा ले रहा है! तुमने फर्क देखा पू तुम अपनी प्रेयसी से मिलने जा रहे हो तो तुम्हारी गति और होती है और किसी के संदेशवाहक हो कर जा रहे हो, किसी ने चिट्ठी दे दी कि जरा मेरी प्रेयसी को पहुंचा देना तो तुम रख लेते हो उदासीन मन से खीसे में, तुम्हें क्या लेना-देना! चले जाते हो, दे भी देते हो; मगर वह गति, त्वरा, ज्वर, जो तुम्हारी प्रेयसी की तरफ जाने में होता है, वह तो नहीं होता, तुम सिर्फ संदेशवाहक
हो।
तुमने देखा, पोस्टमैन आता है, डाकिया! तुम्हें लाख रुपये की लाटरी मिल गई हो, वह ऐसे ही चला आता है कि जैसे दो कौड़ी का लिफाफा पकड़ा रहा है। तुम्हें हैरानी होती है कि अरे, तू कैसा पागल है? लाख रुपये मुझे मिल गए और तू बिलकुल ऐसे ही चला आ रहा है जैसे रोज आता है वही