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________________ बाहर लोगे श्वास तो भीतर जाएगी, भीतर लोगे तो बाहर जाएगी-वंद्व जारी रहेगा। इस जीवन की सारी गति दवंदवात्मक है। दो पैर से आदमी चलता है। सब चलने में दो की जरूरत है। दो पंख से पक्षी उड़ता है। उड़ने में दो की जरूरत है। एक पंख काट दो, पक्षी गिर जाएगा। एक पैर काट दो, आदमी गिर जाएगा। जीवन द्वंद्व से चलता है। जो निवंद्व हुआ वह तत्क्षण गिर जाएगा। इसलिए तो परमात्मा तुम्हें कहीं दिखाई नहीं पड़ता। जो भी दिखाई पड़ता है, वह दवंदव से घिरा होगा। जहां दवंदव गया, वहां दृश्य भी गया; वहां व्यक्ति अदृश्य हो जाता है। जीवन तो उसी अदृश्य का दृश्य होना है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं. किया-अनकिया कर्म, दवंदव किसके कब शांत हुए तो तू इस उलझन में मत पड़ जाना कि इनको शांत करना है। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, मन में बड़ा क्रोध है, इसे कैसे शांत करें? मैं उनसे कहता हूं झंझट में मत पड़ो। क्रोध को कौन कब शांत कर पाया है? तुम तो साक्षी भाव से देखो-जों है सो है-और देखते से ही शांत होना शुरू हो जाता है। लेकिन यह शांति बड़ी और है। इसका यह अर्थ नहीं है कि तरंगें नहीं उठेंगी; तरंगें उठती रहेंगी, लेकिन तुम तरंगों से दूर हो जाओगे। तरंगें उठती रहेंगी, लेकिन इन तरंगों से तुम्हारा तादात्म्य टूट जाएगा। तुम ऐसा न समझोगे. ये तरंगें मेरी हैं। भूख लगेगी तो तुम ऐसा न समझोगे : मुझे भूख लगी तुम समझोगे. शरीर को ।। पैर में कांटा चुभेगा तो तुम समझोगे: शरीर को पीड़ा हुई। विचार तो उठेग तुम में भी उठता है, महावीर में भी उठता है। तुममें उठता है : अरे, मुझे पीड़ा हुई महावीर को उठता है : अरे, शरीर को कांटा गड़ा! जब तुम मरोगे तो तुम्हें विचार उठता है मैं मरा! जब रमण मरते हैं, तो उन्हें विचार उठता है यह शरीर के दिन पूरे हुए। मृत्यु तो होगी ही। वह तो जन्म के साथ ही बंधा है दवंदव। 'इस प्रकार निश्चित जान कर इस संसार में उदासीन हो कर अव्रती और त्यागपरायण हो। ' एक-एक शब्द कोहिनूर जैसा है! 'इस प्रकार निश्चित जान कर...| ' एवं ज्ञात्वेह.......| -ऐसा जान कर!
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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