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यदा चित्तं वांछति!
—जब तुमने कुछ चाहा। चाहा कि निकले यात्रा पर। जरा सोचा तुमने कि बने शेखचिल्ली। सुनी तुमने शेखचिल्ली की कहानी ? जाता था दूध बेचने, सिर पर रखा था घड़ा दूध का । सोचने लगा राह में, कि आज बेच लूंगा तो चार आने मिलेंगे। बचाता रहूंगा चार आने चार आने, चार आने, तो जल्दी ही एक और भैंस खरीद लूंगा ! फिर तो बड़ा प्रफुल्लित हो गया, जब भैंस सामने आई, आंख में उतरी, मन में गंजी | भैंस देखी तो सोचा 'अरे, इतना - इतना दूध होगा, इतना - इतना घी निकलेगा, इस - इस तरह बेचूंगा, जल्दी ही भैंसें ही भैंसें हो जाएंगी! खरीदता जाऊंगा, बेचता जाऊंगा, खरीदता जाऊंगा! जल्दी ऐसी घड़ी आ जाएगी कि इतना धन मेरे पास होगा कि गांव की जो सुंदरतम लड़की है, वह निश्चित विवाह का निवेदन करेगी ! '
तब तो वह हवाओं में उड़ने लगा। जा तो रहा था उसी सड़क पर, दूध बेचने जा रहा था - अभी बिका भी नहीं था, अभी चार आने हाथ में आए भी नहीं थे - शादी भी कर ली, बहू को घर भी ले आया । इतना ही नहीं, जल्दी ही बेटा भी हो गया। अभी बाजार पहुंचा नहीं था, अभी जा ही रहा था। बेटा भी हो गया। बेटे को बिठाए, सर्दी के दिन हैं, गोदी में खिला रहा है। बेटे ने उसकी दाढ़ी खींचनी शुरू कर दी। तो उसने कहा, ' अरे नासमझ !' यह बात जरा जोर से निकल गई। पहले धीरे- धीरे मन में चल रहा था सब खेल। अब तो खेल इतना पक्का हो गया था कि यह बात जरा जोर से निकल गई। और दोनों हाथ से उसने बेटे को दाढ़ी से अगल करने की कोशिश की-घडा छूट गया। घड़ा जमीन पर गिरा ।
तुम्हें दिखा कि घड़ा गिरा; उसका तो सारा संसार गिर गया। तुम्हें उसके संसार का पता नहीं ! बेटा मरा, पत्नी मरी, हजारों भैंसें खरीदनी थीं, सब खो गईं। संपत्ति खड़ी हो गई थी, सब मिट गई। कोई भी न था। वे चार आने भी जो संभव थे, वे भी गए। खड़ा है अकेला। तुम समझ भी नहीं सकते कि राह पर टूट गई उस मटकी में कितना क्या टूट गया !
इसको अष्टावक्र तुम्हारे मन का संसार कहते हैं।. . नाम कल्पना! कुछ है नहीं - खेल है। लेकिन मन उस खेल में रसलीन हो जाता, डूब जाता ।
जहां मन की किया है, वहीं बंधन है।
यदा चित्तं वांछति!
- जहां मन ने चाहा, कुछ भी चाहा ।
यहां विषय का कोई भेद नहीं है। ऐसा नहीं कहा जा रहा कि जो लोग धन चाहते हैं वे संसारी
हैं और बंधन में हैं। तुमने अगर परमात्मा चाहा तो भी तुम बंधन में हो। तुमने अगर सत्य चाहा तो
भी
तुम बंधन में हो। देखना सूत्र को.
यदा चित्तं वांछति ।
जिसके चित्त में वांछा उठी।
वांछा किसकी? इसकी कोई जरूरत कहने की नहीं। क्योंकि किसी की भी वांछा उठे, वांछा के