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उतना बल देता है।
कामी व्यक्ति काम से छूटना चाहता है, तो काम ही काम की चिंता करता है कि 'कैसे छुटूं? यह पाप है, यह बुरा है, यह अपराध है। ' क्रोधी क्रोध से छटना चाहता है, तो क्रोध के साथ ही उलझा रह जाता है।
तुम जिससे छूटना चाहोगे, उसी में अटक जाओगे।
ध्यान को बदलना। ध्यान रात से हटे, सुबह पर लगे। ध्यान अंधेरे से हटे, दीये पर लगे। दुख की बात ही मत उठाओ। दुख है, उसकी उपेक्षा करो। सुख को जगाओ। इधर सुख जगने लगेगा, उधर दुख तिरोधान होने लगेगा। तो परिभाषाओं को तुम साधना मत समझना। अनेक लोग परिभाषाओं को साधना मान लेते हैं। परिभाषाएं तो केवल इंगित हैं, इशारे हैं, किसी बात को कहने के ढंग हैं। और कहना पड़ता है उल्टी तरफ से, क्योंकि उल्टे से तुम परिचित हो। आनंद को हम बुद्धों की तरफ से तो कह नहीं सकते, क्योंकि उसके लिए फिर कोई भाषा नहीं है। बुद्धों की कोई भाषा नहीं है, वहां तो मौन भाषा है। आनंद को कहना हो तो अबुद्धों की तरफ से कहना पड़ेगा। अबुद्धों को आनंद का कोई पता नहीं है। अड़चन समझो। बुद्धों के पास कोई भाषा नहीं है, आनंद का अनुभव है। अबुद्धों के पास भाषा है आनंद का कोई अनुभव नहीं है। अब इन दोनों के बीच कैसे संवाद हो? तो हम बुद्धों के अनुभव को अबुद्धों की भाषा में अनुवादित करते हैं। जब हम कहते हैं, आनंद दुख का निरोध है, तो अनुवाद है यह। जब हम कहते हैं, सूरज का ऊगना रात का मिट जाना है, तो अनुवाद है यह। तुम्हारी भाषा में अनुवाद है, तुम्हें अनुभव नहीं है। और उनका अनुवाद है जिन्हें अनुभव है, लेकिन जिनके पास भाषा नहीं है।
'जब मन कुछ चाहता है...।'
तदा बंधो यदा चित्तं किंचिद्वाच्छति शोचति
__ किंचिन्दुज्चति गृहणाति किंचिद्धष्यति कुप्यति। 'जब मन कुछ सोचता है, कुछ चाहता है, कुछ त्यागता है, कुछ ग्रहण करता है, जब वह सुखी और दुखी होता है-तब बंध है।'
जब मन सक्रिय होता है तब बंध है। मन की क्रिया बंधन है। तुमसे लोगों ने कहा, क्रोध बंध है। तुमसे लोगों ने कहा, काम बंध है, लोभ बंध है-वह बात पूरी नहीं है. क्योंकि अगर दान तुम करोगे सोच कर, तो वह भी बंध है। अगर तुम करुणा करोगे सोच कर, तो वह भी बध है। अष्टावक्र बड़ी मौलिक परिभाषा दे रहे हैं। वे कह रहे हैं, मन की क्रिया मात्र बंध है। जहां मन सक्रिय हुआ, तरंगें उठीं, वहां तुम बंध गए। जहां मन पूरा निक्तिय हुआ वहीं तुम मुक्त हो गए। उन क्षणों को खोजो जहां मन की कोई क्रिया न हो।
तदा बंध:! -यहां है बंध।